मोम—परों से उड़ना और।
इस दुनिया में रहना और।
आँख के आगे फिरना और।
पर तस्वीर में ढलना और।
घर से सुबह निकलना और।
शाम को वापस आना और।
कुछ नज़रों में उठना और।
अपनी नज़र में गिरना और।
क़तरा—क़तरा भरना और।
क़तरा—क़तरा ढलना और।
और है सपनों में जीना,
सपनों का मर जाना और।
घर से होना दूर जुदा,
लेकिन ख़ुद से बिछड़ना और।
जीना और है लम्हों में,
हाँ, साँसों का चलना और।
रोज़ बसाना घर को अलग,
घर का रोज़ उजड़ना और।
ग़ज़लें कहना बात अलग,
पर शे‘रों—सा बनना और।
रोज़ ही खाना ज़ख्म जुदा,
पर ज़ख़्मों का खुलना और।
पेड़ उखड़ना बात अलग,
‘द्विज’! पेड़ों का कटना और।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
10 comments:
.........अपनी नजर में गिरना और..... गहरे अहसास दे जाती है.
द्विज जी नमस्कार,
बहोत ही सरल शब्दों में लिखी बेहतरी ग़ज़ल ज़िन्दगी के बेहतरीन पहलू को बखूबी तरीके से सामने रखा है बहोत ही सुंदर भाव भरे ... बहोत खूब द्विज जी ..
आभार
अर्श
सादर प्रणाम!
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ख़ाब जुदा रंग भरना और
कहना और है करना और
सेहरा का दुख समझे कौन
होना और गुज़रना और
आया तो कट भी जायेगा
पर उस पल से डरना और
घर में रहना बात जुदा
दिल में जान उतरना और
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क्या ख़्याल है, है ना इसी ज़मीं में उपजी आपकी ग़ज़ल!
मत्ला बहुत ही ख़ूबसूरत। पूरी ग़ज़ल अच्छी है।
द्विज जी की रचना पर क्या कहूँ...???लाजवाब....
नीरज
बहुत खूब--आप की ग़ज़लों से बहुत कुछ सीखने को मिलता है
'द्विज' साहेब
ये ज़रा अलग ही अंदाज़ की ग़ज़ल बहुत पसंद आई। कुछ नई सोचों को बड़ी ख़ूबी से क़लमबंद किया है। हर शे'र अपने आप में बेमिसाल है।
quasi-caesura breaks का इस्तेमाल करके तो आपने चकित कर डाला। उर्दू में लफ़्ज़ याद नहीं आ रहा। हिंदी में शायद यति या यत्यात्मक से काम चल जाए।
आप की रचनाओं पर कुछ कहना सूरज के आगे चराग़ वाली बात होगी।
महावीर
आदरणीय शर्मा साहब
सादर प्रणाम.
हौसला अफज़ाई और आशीर्वाद के लिए आभार.
सादर
द्विज
इस गज़ल को फिर-फिर-फिर पढ़ने लौटा.कुछ अजब सा जादू लिये हुये...
और ये शेर तो पूरी दुनिया को सुनाता फिरता हूं
"ग़ज़लें कहना बात अलग / पर शे‘रों—सा बनना और"
उस कलम को नमन !!!
ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ,
यह सदी पत्थर—सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़।
बहुत खूब.....नमन है आप की कलम को ....!!
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