अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते।
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं,
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते।
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में,
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते।
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक,
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते।
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा,
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते।
6 comments:
क्या बात है कोई एक शेर हो तो बखान किया जाये...यहाँ तो हर एक शेर एक से बढ़ कर एक है...बहुत अच्छा लगा पढ़ कर।
हर एक शेर एक से बढ़ कर एक ...बहुत अच्छा.
पहले शेर की दूसरी पंक्ति मैं ही समझ नहीं पा रहा हूँ या उसमें कुछ छूट गया लगता है ? देख लें . बाकी के शेर तो लाजवाब हैं, अपने पूरे गौरव में .
"फरेबों की कहानी है...." बहुत खूबसूरत शेर है...एक ऐसा शेर जो सिर्फ़ उस्ताद ही लिख सकते हैं...बहुत शुक्रिया प्रकाश जी द्विज भाई की ग़ज़ल प्रस्तुत करने पर...
नीरज
हिमांशु जी
आपने सही कहा है .यह मतला (पहला शे’र) यूँ है :
अँधेरे चन्द लोगों का अगर मकसद नहीं होते
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूँ.
द्विज
भाई हिमांशु जी व भाई द्विज जी,
आप दोनो से क्षमा चाहता हूं क्योंकि इस ब्लॉग पर भाई द्विज की ग़ज़लें मैं प्रस्तुत करता हूं आप दोनो में एक पाठक है और एक ग़ज़ल का रचनाकार, गलती से मुझ से शेर में टाईप में हेर-फेर हो गया जो मैने अब सुधार लिया है। मुझे पुन: क्षमा करें।
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