बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता
तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता
अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता
तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती,
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता
तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती,
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं,
लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता।
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते,
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता।
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
6 comments:
"तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता
तुम्हारे दिल सुलगने का यकीं कैसे हो लोगों को
अगर सीने में शोला है तो क्यूँ बाहर नहीं आता"
ऐसे लाजवाब शेरों से सजी द्विज साहेब की ये ग़ज़ल कमाल की है....उनका अपना एक अनूठा अंदाज़ है जो सबसे अलग है और हमें बार बार उन्हें पढने को मजबूर करता है...इश्वर उनसे ऐसी और बहुत सी ग़ज़लें लिखवाता रहे...ये ही प्रार्थना है...
नीरज
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं,
लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता।
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते,
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता।
har lafz jaise chingari jala gaya,bujhi shama ko dil mein jala gaya.
har sher kabile tariff ,bahut sundar gazal badhai.
द्विज जी नमस्कार ,
बहोत ही बढ़िया ग़ज़ल पेश करी है आपने बहोत खूब ढेरो बधाई आपको साहब........
भाई ’अर्श’ जी
नमस्कार.
बहुत- बहुत शुक्रिया.
इस ब्लाग पर मेरी ग़ज़लें प्रिय भाई प्रकाश बादल जी प्रस्तुत करते हैं.
इसी बहाने आप जैसे मित्रों के साथ सम्पर्क बन रहा है.
द्विज
गज़ब का मतला...और हर शेर कुछ इतने जबरद्स्त तरीके से क्लाईमेक्स पर पहुँच कर खत्म हो रहा है कि क्या कहने...
चाहे वो "किसी भी काफ़िले के पीठ पर" हो या "कोई रहजन कभी बन कर.." हो या "लहू से तर-ब-तर कोई कहीं खंजर.." और या फिर कहर ढ़ाता मकता का "अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता"
द्विज जी को दंडवत प्रणाम !
पढ़ा, शब्द प्रयोग अच्छा है
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चाँद, बादल और शाम
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