परों को काट के क्या आसमान दीजिएगा।
ज़मीन दीजिएगा या उड़ान दीजिएगा।
हमारी बात को भी अपने कान दीजिएगा,
हमारे हक़ में भी कोई बयान दीजिएगा।
ज़बान, ज़ात या मज़हब यहाँ न टकराएँ,
हमें हुज़ूर, वो हिन्दोस्तान दीजिएगा।
रही हैं धूप से अब तक यहाँ जो नावाक़िफ़,
अब ऐसी बस्तियों पे भी तो ध्यान दीजिएगा।
है ज़लज़लों के फ़सानों का बस यही वारिस,
सुख़न को आप नई —सी ज़बान दीजिएगा।
कभी के भर चुके हैं सब्र के ये पैमाने,
ज़रा—सा सोच—समझकर ज़बान दीजिएगा।
जो छत हमारे लिए भी यहाँ दिला पाए,
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा।
नई किताब बड़ी दिलफ़रेब है लकिन,
पुरानी बात को भी क़द्र्दान दीजिएगा।
जुनूँ के नाम पे कट कर अगर है मर जाना,
ये पूजा किसके लिए,क्यों अज़ान दीजिएगा।
अजीब शह्र है शहर—ए—वजूद भी यारो,
क़दम—क़दम पे जहाँ इम्तहान दीजिएगा।
क़लम की नोंक पे हों तितलियाँ ख़्यालों की,
क़लम के फूलों को वो बाग़बान दीजिएगा।
जो हुस्नो—इश्क़ की वादी से जा सके आगे,
ख़याल—ए— शायरी को वो उठान दीजिएगा।
ये शायरी तो नुमाइश नहीं है ज़ख़्मों की,
फिर ऐसी चीज़ को कैसे दुकान दीजिएगा।
जो बचना चाहते हो टूट कर बिखरने से,
‘द्विज’, अपने पाँवों को कुछ तो थकान दीजिएगा।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
8 comments:
kitne achche shabdon ka pryoog kiya hai aapne
बहुत अच्छी गजल
द्विज जी नमस्कार ,
बहोत ही खूब लिखा है आपने ग़ज़ल का मतला तो क्या कहने ढेरो बधाई साहब...
आभार
अर्श
बहुत अच्छी गजल है।
कलम की नोक पे हों तितलियाँ ख्यालों की....
क्या कमाल का शेर है...ऐसे दिलकश बात द्विज जी ही लिख सकते हैं...नमन उनकी लेखनी को...वाह...हर शेर लाजवाब.
नीरज
बहुत उम्दा ख़्यालों से महकती हुई ग़ज़ल!
बहुत ही अच्छी सार्थक लाजवाब ग़ज़ल..
जबान,जात या मजहब यहाँ न टकराएँ
हमें हुजूर वो हिन्दोस्ता दीजियेगा
वाह ! आपकी गजलें लाजवाब है ...
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