फ़स्ल सारी आप बेशक अपने घर ढुलवाइए।
चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए।
तैर कर ख़ुद पार कर लेंगे यहाँ हम हर नदी,
आप अपनी कश्तियों को दूर ही ले जाइए।
रतजगे मुश्किल हुए हैं अब इन आँखों के लिए,
ख़त्म कब होगी कहानी ये हमें बतलाइए।
कब तलक चल पाएगी ये आपकी जादूगरी,
पट्टियां आँखों पे जो हैं अब उन्हें खुलवाइए।
ये अँधेरा बंद कमरा, आप ही की देन है,
आप इसमें क़ैद हो कर चीखिए चिल्लाइए।
सच बयाँ करने की हिम्मत है अगर बाक़ी बची,
आँख से देखा वहाँ जो सब यहाँ लिखवाइए।
फिर न जाने बादशाहत का बने क्या आपकी,
नफ़रतों को दूर ले जाकर अगर दफनाइए।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
10 comments:
wonderful ghazal as usual Sir. Nice to read.
bahut hi bindas prastuti. dhanyawaad.
bahut hi badhiya badhai
प्रिय भाई प्रकाश बादल जी
इस गज़ल के अंतिम शे’र में काफ़िया अपनाइए नहीं है ‘दफ़नाइए’ है.
‘फिर न जाने बादशाहत का बने क्या आपकी
नफ़रतों को दूर ले जाकर अगर दफ़नाइए.’
द्विज जी नमस्कार ,
आप जैसे मुकम्मल गज़लकार मेरे जैसे अदना के ब्लॉग पे आए सिर्फ़ इससे बड़ी प्रशंसा मेरे लिए और क्या हो सकती है ,आप जैसे दिगाजों से ही बहोत कुछ सीखता आया हूँ और उम्मीद करता हूँ और भी बहोत खुच सिखाने को मिलेगी ... आपकी प्रशंसा तो प्रेरणाश्रोत की तरह है ..... आपका मेरे ब्लॉग पे ढेरो स्वागत है उम्मीद करता हूँ आपका स्नेह इस छोटे भाई को परस्पर मिलता रहेगा ....
आपकी लिखी ग़ज़लों का तो मैं मुरीद हूँ ... बहोत ही उम्दा रचना ... ढेरो बधाई स्वीकारें.....
आभार
अर्श
द्विज जी की अदा निराली है..बस्सा!!!
"सच बयां करने की हिम्मत...." सुभान अल्लाह...क्या शेर है....द्विज जी की क्या बात है...लाखों में एक हैं...सलामत रहे उनकी लेखनी...वाह...
नीरज
Hello sir..
brilliant ghazal....!!!
I liked the first two lines most...
"fasl saari bheshak apne ghar dhulwaiye.
chand daane mere hisse ke mujhe de jaiye."
Nice to read....
आदरणीय भाई द्विज जी ग़लती सुधार ली है, भविष्य में कोई ग़लती न हो ऐसी कोशिश रहेगी।
thodaa itminaan se padhne ke baad raay de paungi...lekin bdhai abhi le-len
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