नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की
ज़िन्दगी उनकी कथा है आज भी बनवास की
जिन परिन्दों की उड़ाने कुन्द कर डाली गईं,
जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निर्वास की
तोड़कर मासूम सपने आने वाली पौध के ,
नींव रक्खेंगे भला वो कौन से इतिहास की
वह उगी, काटी गई, रौंदी गई, फिर भी उगी,
देवदारों की नहीं औकात है यह घास की
वह तो उनके शोर में ही डूब कर घुटता रहा,
क़हक़हों ने कब सुनी दारुण कथा संत्रास की
तब यक़ीनन एक बेहतर आज मिल पाता हमें,
पोल खुल जाती कभी जो झूठ के इतिहास की
आपके ये आश्वासन पूरे होंगे जब कभी,
तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की
अनगिनत मायूसियों, ख़ामोशियों के दौर में,
देखना ‘द्विज’, छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
3 comments:
अच्छी गज़ल है। बधाई।
गज़ल (माशूका के साथ की गई गुफ़्तगू) का अर्थ इस नये ज़माने के साथ बदल रहा है। नई हवा, नये ख़यालों में ग़ज़ल पढ़ने को मिलती है जो हमें आजकल के हालात और अन्य विषयों पर सोचने पर मजबूर कर देती है।
Bhai Dwij ji, Namaskar,
Aapki ghazal padi achchhi lagi badhai. 'aapke aashwaasanon....' wala misara padate samay bahar atakti hai. ek baar dekhen.
is sunder abhivyakti ke liye punah badhai
आदरणीय भाई चन्द्रभान भारद्वाज जी,
आपने मिसरे की सही और बेहतर सूरत सुझाई है:
आपके आश्वासनों के जब तलक अंकुर उगें
तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की.
आभारी हूँ.
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