आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक।
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक।
टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी,
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक।
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से,
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक।
अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना,
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक।
फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ मज़हब का,
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक।
उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते,
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक।
देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का,
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक।
रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है,
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक।
इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो,
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक।
पुरसुकून आपका चेहरा, ये चमकती आँखें,
आप भी शहर में, लगता है , नये हैं अब तक।
ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई,
यूँ तो हमने भी कई शे’र कहे हैं अब तक।
दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल,
और ‘द्विज’! आप तो दो कोस चले हैं अब तक।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
11 comments:
द्विज जी नमस्कार,
बहोत ही खूब ग़ज़ल लिखी है आपने नयापन के साथ साथ देश भक्ति से लबरेज है बहोत ही उम्दा ग़ज़ल पढ़ने को मिला ....
आभार
अर्श
बहुत बढियां गजल। बधाई
waah bahut achhi gazal badhai,har sher awesome just awesome
ये जो इतनी मुश्किल रदिफ़ों को ले कर भी इतनी आसानी से इतनी बढ़िया गज़ल कह डालने का जो द्विज जी का अंदाज है,वो तमाम "वाह-वाही" से परे है...और हम तो वैसे भी इन गज़लों में डूब-उतर कर नयी बातें नये तजुर्बे सीखते रहते हैं..
देख लेना कभी मन्जर वो घने जंगल का,जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूंठ दबे हैं अब तक...कोई जवाब है इन शेरों का?
जी साहब हम भी इस शहर में नए ही हैं पर आपको देखने के बाद अब ख़ुद को अजनबी सा महसूस नहीं कर रहे
हाँ , थोडा रश्क होता है आपसे ..के अआप एक एक लम्हा आज में इतनी आसानी से जी लेते हैं .....
हमसे भी हमारा कल छुड़वा दीजिये ना....??
आपकी ग़ज़लों की तारीफ़ अब हम क्या करें, मगर कितनी मुश्किल ग़ज़ल आप कितनी आसानी से कह लेते हैं। हम अभी सीख ही रहे हैं, आपके लिखने से हमें मार्गदर्शन ही मिलता है।
देख लेना कभी मन्जर वो घने जंगल का,
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूंठ दबे हैं अब तक,
aisa she'r sadiyoN me sunne ko milta hai.
har she'r lajwab hai, mai to khud khud unka riNhee hooN .
saadar khyaal
Dwij Sahab, aik aur ustadana ghazal ke liye mubaarik.
navneet
द्विज जी, क्या कहूँ...बस... ''सुभा..न अल्लाह!''
भाई जी ,
नया साल आपको बार बार मुबारक हो......
आज के हालात यूँ ही बयान करती रहे आपकी लेखनी........
उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते,
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक।
yahan to gazalon ka khajana hai....bahut hi behtareen gazal lagi...
bahut bahut badhayee..
[baqi bhi padhungi -dobara aa kar]
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