द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Friday, 5 December 2008

Posted by Prakash Badal

बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल।

इसलिए शायद न अबके आप को भाई ग़ज़ल।


आपके भाषण तो सुन्दर उपवनों के स्वप्न हैं,

ज़िन्दगी फिर भी हमारी क्यों है मुर्झाई ग़ज़ल।


माँगते हैं जो ग़ज़ल सीधी लकीरों की तरह,

काश वो भी पूछते, है किसने उलझाई ग़ज़ल।


इक ग़ज़ब की चीख़ महव—ए—गुफ़्तगू हमसे रही,

हमने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल।


आप मानें या न मानें यह अलग इक बात है,

हर तरफ़ यूँ तो है वातावरण पे छाई ग़ज़ल।

5 comments:

Udan Tashtari said...

द्विज जी की गज़लों के तो क्या कहनें!! वाह!!


आपका आभार प्रस्तुत करने का.

युग-विमर्श said...

प्रिय द्विज जी,
आज आपकी ताज़ा ग़ज़ल देखी. अच्छी है. ग़ज़ल दामन में झुग्गियां बाँध कर लायी. कुछ उपायुक्त नही जंचता. दामन में कोई चीज़ बाँधी नहीं जाती. दामन फैलाकर ली जाती है. दामन के स्थान पर यदि आँचल होता तो अधिक सार्थक होता. दूसरे शेर में 'तो' और 'फिर भी' शब्द मिसरे के फोर्स को कम कर देते हैं. वैसे तो शेर ठीक है. अन्तिम शेर में वातावरण पढ़ने में वातावर्ण हो जाता है. आप चाहते तो शब्द इधर-उधर करके यूँ भी कर सकते थे.
हर तरफ़ वातावरण पर यूँ तो है छाई ग़ज़ल
या
हर तरफ़ वातावरण पर आज है छाई ग़ज़ल.
आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद हैं.

अमिताभ मीत said...

बहुत खूब !

".......... हम ने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल."

"अर्श" said...

बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई आपको.

गौतम राजऋषि said...

अनूठी गज़ल...अनूठी उपमाओं से सजी

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