बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल।
इसलिए शायद न अबके आप को भाई ग़ज़ल।
आपके भाषण तो सुन्दर उपवनों के स्वप्न हैं,
ज़िन्दगी फिर भी हमारी क्यों है मुर्झाई ग़ज़ल।
माँगते हैं जो ग़ज़ल सीधी लकीरों की तरह,
काश वो भी पूछते, है किसने उलझाई ग़ज़ल।
इक ग़ज़ब की चीख़ महव—ए—गुफ़्तगू हमसे रही,
हमने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल।
आप मानें या न मानें यह अलग इक बात है,
हर तरफ़ यूँ तो है वातावरण पे छाई ग़ज़ल।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
5 comments:
द्विज जी की गज़लों के तो क्या कहनें!! वाह!!
आपका आभार प्रस्तुत करने का.
प्रिय द्विज जी,
आज आपकी ताज़ा ग़ज़ल देखी. अच्छी है. ग़ज़ल दामन में झुग्गियां बाँध कर लायी. कुछ उपायुक्त नही जंचता. दामन में कोई चीज़ बाँधी नहीं जाती. दामन फैलाकर ली जाती है. दामन के स्थान पर यदि आँचल होता तो अधिक सार्थक होता. दूसरे शेर में 'तो' और 'फिर भी' शब्द मिसरे के फोर्स को कम कर देते हैं. वैसे तो शेर ठीक है. अन्तिम शेर में वातावरण पढ़ने में वातावर्ण हो जाता है. आप चाहते तो शब्द इधर-उधर करके यूँ भी कर सकते थे.
हर तरफ़ वातावरण पर यूँ तो है छाई ग़ज़ल
या
हर तरफ़ वातावरण पर आज है छाई ग़ज़ल.
आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद हैं.
बहुत खूब !
".......... हम ने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल."
बहोत खूब लिखा है आपने ढेरो बधाई आपको.
अनूठी गज़ल...अनूठी उपमाओं से सजी
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