ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी|
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी|
बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी,
कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी|
बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !
बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी|
ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं,
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी|
नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे,
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी|
क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की,
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी|
यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में,
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी|
भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी"
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी|
हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको,
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी|
मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह,
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी|
तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं,
कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी|
अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है,
कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी|
बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी|
बुला रही है तुझे धूप ‘द्विज’ पहाड़ों की,
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी|
9 comments:
bahot badhiya ghazal likha hai aapne bahot khub....
क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की,
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी|
यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में,
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी|
waah gazab lajawab sundar
बहुत बढिया गजल है।बधाई।
बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी|
एक अच्छी और कामयाब ग़ज़ल. मगर हैरत है कि ये मिसरा आपके कलम से कैसे निकला- "हमें भी आंखों से सुनना नहीं आता उनको" ये बह्र से खारिज है. आपमें सलाहियत है. आप चाहते तो कुछ दूसरे शेरों को भी और बेहतर कर सकते थे. दिहाडियाँ वाला मिसरा भी टूटता है.
'वो बातें करता तो है पुर-तपाक लहजे में / मगर छुपा नहीं पाता है तल्खियां अपनी', और 'बदलते वक़्त कि रफ़्तार वो समझते हैं / बदलते रहते हैं अक्सर जो टोपियाँ अपनी' या 'बना के छाप लो तुम उनको सुर्खियाँ अपनी / कुंएं में डाल के आया हूँ नेकियाँ अपनी' ख़ास तौर से अच्छे अश'आर हैं.
badhiya gajal ...
बहुत सुंदर।
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी
ये शेर बहुत अच्छा है। very inspiring...
उम्दा इस्लाह के युग-विमर्श का मैं हृदय से आभारी हूँ.युग-विमर्श ने मुझे मेरी ग़ज़ल के दो मिसरों में गंभीर त्रुटियों के बारे में चेताया है. मुझे भी उतनी ही हैरत है कि तकनीकी पक्ष से कमज़ोर ये मिसरे मेरी कलम से कैसे निकले ! इसका कारण है कि ग़ज़ल कहने के बाद मैंने इन मिसरों को ‘तक़्तीअ’ की कसौटी पर परिमार्जित नहीं किया.
ख़ैर और बेहतर सूरत मिलने तक फ़िलहाल इन मिसरों को इस तरह बदला है:
भले ही आँखों से आता नहीं हमें सुनना
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी
और
दूसरे शे’र को अब यूँ पढ़ा जाना चाहूँगा:
ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
वो गिन रहा है अभी तो दिहाड़ियाँ अपनी.
भविष्य में भी युग विमर्श से ऐसी नेक इस्लाह की उम्मीद रहेगी.
मेरी ग़ज़लों के ब्लाग पर तशरीफ़ लाने वाले तमाम सुधी पाठकों का भी बहुत-बहुत आभार.
आप सबकी टिप्पणियाँ मुझे प्रेरित करती रहेंगी, इसी आशा के साथ,
सादर
द्विजेन्द्र द्विज
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