ख़ुद तो जी हमेशा ही तिश्नगी पहाड़ों ने
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने
आदमी को बख़्शी है ज़िन्दगी पहाड़ों ने।
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने।
हर क़दम निभाई है दोस्ती पहाड़ों ने।
हर क़दम पे पाई है बेरुख़ी पहाड़ों ने।
मौसमों से टकरा कर हर क़दम पे दी,
सबके जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने
देख हौसला इनका और शक्ति सहने की !
टूट कर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने।
नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिए सारे,
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने।
रोक रास्ता उनका हाल जब कभी पूछा,
बादलों को दे दी है नग़्मगी पहाड़ों ने।
लुट-लुटा के हँसने का योगियों के दर्शन सा,
हर पयाम भेजा है दायिमी पहाड़ों ने।
सबको देते आए हैं नेमतें अज़ल से,
ये ‘द्विज’ को भी सिखाई है शायरी पहाड़ों ने।
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
7 comments:
बढिया रचना है।sundar Baav hai| badhaaI|
bahot khub likha hai apane .. dhero badhai apako...
देख हौसला इनका और शक्ति सहने की !
टूट कर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने।
नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिए सारे,
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने।
waah khubsurat bhav badhai
द्विज जी के लेखन के हम शुरू से कायल हैं और उनकी ये रचना पहाडों का दुःख दर्द क्या खूबी से बयां करती है...भाई वाह...
नीरज
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
achchhi gazal hai.Badhai.
Chandrabhan Bhardwaj
नायाब रचना की प्रस्तुती के लिये धन्यवाद...
द्विज के बारे में तो जितना कहा जाय कम है
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