ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में
दिल में हो शादमानी नये साल में
सब के आँगन में अबके महकने लगे
दिन को भी रात-रानी नये साल में
ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन
इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में
इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का
सच की हो पासबानी नये साल में
है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके
नफ़रतों की कहानी नये साल में
बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू
हो यही मेहरबानी नये साल में
राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े
काश हों पानी-पानी नये साल में
वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू
बख़्शना कुछ रवानी नये साल में
ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे
दोस्तों की कहानी नये साल में
हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए
दे उन्हें कामरानी नये साल में
अब के हर एक भूखे को रोटी मिले
और प्यासे को पानी नये साल में
काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से
ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में
देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़
ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में
कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.
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********************प्रकाश बादल************************
Wednesday, 31 December 2008
Wednesday, 24 December 2008
आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक।
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक।
टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी,
अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक।
रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से,
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक।
अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना,
हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक।
फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ मज़हब का,
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक।
उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते,
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक।
देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का,
जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक।
रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है,
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक।
इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो,
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक।
पुरसुकून आपका चेहरा, ये चमकती आँखें,
आप भी शहर में, लगता है , नये हैं अब तक।
ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई,
यूँ तो हमने भी कई शे’र कहे हैं अब तक।
दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल,
और ‘द्विज’! आप तो दो कोस चले हैं अब तक।
Thursday, 18 December 2008
न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब।
ज़मीं पे रह के ज़मीं पर कहाँ हैं सब के सब।
कोई भी अब तो किसी की मुख़ाल्फ़त में नहीं,
अब एक-दूसरे के राज़दाँ हैं सब के सब।
क़दम-कदम पे अँधेरे सवाल करते हैं,
ये कैसे नूर का तर्ज़े-बयाँ हैं सब के सब।
वो बोलते हैं मगर बात रख नहीं पाते,
ज़बान रखते हैं पर बेज़बाँ हैं सब के सब।
सुई के गिरने की आहट से गूँज उठते हैं,
गिरफ़्त-ए-खौफ़ में ख़ाली मकाँ हैं सब के सब।
झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के,
‘द्विज’,ऐसा लगता है वो बेज़बाँ हैं सब के सब।
Monday, 15 December 2008
इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं
हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं
हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं ख़लल,
वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं
हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी,
हर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं
कहीं दिखे ही नहीं गाँवों में वो पेड़ हमे,
बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं
कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं,
जो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है
वो सारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ की,
कि जिनके साये ही दम—ख़म पिघाल देते हैं
Sunday, 14 December 2008
अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा।
और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा।
फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ,
जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा।
‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर,
‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा।
क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं,
और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा।
ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब,
ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा।
Friday, 12 December 2008
मोम—परों से उड़ना और।
इस दुनिया में रहना और।
आँख के आगे फिरना और।
पर तस्वीर में ढलना और।
घर से सुबह निकलना और।
शाम को वापस आना और।
कुछ नज़रों में उठना और।
अपनी नज़र में गिरना और।
क़तरा—क़तरा भरना और।
क़तरा—क़तरा ढलना और।
और है सपनों में जीना,
सपनों का मर जाना और।
घर से होना दूर जुदा,
लेकिन ख़ुद से बिछड़ना और।
जीना और है लम्हों में,
हाँ, साँसों का चलना और।
रोज़ बसाना घर को अलग,
घर का रोज़ उजड़ना और।
ग़ज़लें कहना बात अलग,
पर शे‘रों—सा बनना और।
रोज़ ही खाना ज़ख्म जुदा,
पर ज़ख़्मों का खुलना और।
पेड़ उखड़ना बात अलग,
‘द्विज’! पेड़ों का कटना और।
Wednesday, 10 December 2008
फ़स्ल सारी आप बेशक अपने घर ढुलवाइए।
चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए।
तैर कर ख़ुद पार कर लेंगे यहाँ हम हर नदी,
आप अपनी कश्तियों को दूर ही ले जाइए।
रतजगे मुश्किल हुए हैं अब इन आँखों के लिए,
ख़त्म कब होगी कहानी ये हमें बतलाइए।
कब तलक चल पाएगी ये आपकी जादूगरी,
पट्टियां आँखों पे जो हैं अब उन्हें खुलवाइए।
ये अँधेरा बंद कमरा, आप ही की देन है,
आप इसमें क़ैद हो कर चीखिए चिल्लाइए।
सच बयाँ करने की हिम्मत है अगर बाक़ी बची,
आँख से देखा वहाँ जो सब यहाँ लिखवाइए।
फिर न जाने बादशाहत का बने क्या आपकी,
नफ़रतों को दूर ले जाकर अगर दफनाइए।
Tuesday, 9 December 2008
नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की
ज़िन्दगी उनकी कथा है आज भी बनवास की
जिन परिन्दों की उड़ाने कुन्द कर डाली गईं,
जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निर्वास की
तोड़कर मासूम सपने आने वाली पौध के ,
नींव रक्खेंगे भला वो कौन से इतिहास की
वह उगी, काटी गई, रौंदी गई, फिर भी उगी,
देवदारों की नहीं औकात है यह घास की
वह तो उनके शोर में ही डूब कर घुटता रहा,
क़हक़हों ने कब सुनी दारुण कथा संत्रास की
तब यक़ीनन एक बेहतर आज मिल पाता हमें,
पोल खुल जाती कभी जो झूठ के इतिहास की
आपके ये आश्वासन पूरे होंगे जब कभी,
तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की
अनगिनत मायूसियों, ख़ामोशियों के दौर में,
देखना ‘द्विज’, छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की
Monday, 8 December 2008
परों को काट के क्या आसमान दीजिएगा।
ज़मीन दीजिएगा या उड़ान दीजिएगा।
हमारी बात को भी अपने कान दीजिएगा,
हमारे हक़ में भी कोई बयान दीजिएगा।
ज़बान, ज़ात या मज़हब यहाँ न टकराएँ,
हमें हुज़ूर, वो हिन्दोस्तान दीजिएगा।
रही हैं धूप से अब तक यहाँ जो नावाक़िफ़,
अब ऐसी बस्तियों पे भी तो ध्यान दीजिएगा।
है ज़लज़लों के फ़सानों का बस यही वारिस,
सुख़न को आप नई —सी ज़बान दीजिएगा।
कभी के भर चुके हैं सब्र के ये पैमाने,
ज़रा—सा सोच—समझकर ज़बान दीजिएगा।
जो छत हमारे लिए भी यहाँ दिला पाए,
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा।
नई किताब बड़ी दिलफ़रेब है लकिन,
पुरानी बात को भी क़द्र्दान दीजिएगा।
जुनूँ के नाम पे कट कर अगर है मर जाना,
ये पूजा किसके लिए,क्यों अज़ान दीजिएगा।
अजीब शह्र है शहर—ए—वजूद भी यारो,
क़दम—क़दम पे जहाँ इम्तहान दीजिएगा।
क़लम की नोंक पे हों तितलियाँ ख़्यालों की,
क़लम के फूलों को वो बाग़बान दीजिएगा।
जो हुस्नो—इश्क़ की वादी से जा सके आगे,
ख़याल—ए— शायरी को वो उठान दीजिएगा।
ये शायरी तो नुमाइश नहीं है ज़ख़्मों की,
फिर ऐसी चीज़ को कैसे दुकान दीजिएगा।
जो बचना चाहते हो टूट कर बिखरने से,
‘द्विज’, अपने पाँवों को कुछ तो थकान दीजिएगा।
Friday, 5 December 2008
बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल।
इसलिए शायद न अबके आप को भाई ग़ज़ल।
आपके भाषण तो सुन्दर उपवनों के स्वप्न हैं,
ज़िन्दगी फिर भी हमारी क्यों है मुर्झाई ग़ज़ल।
माँगते हैं जो ग़ज़ल सीधी लकीरों की तरह,
काश वो भी पूछते, है किसने उलझाई ग़ज़ल।
इक ग़ज़ब की चीख़ महव—ए—गुफ़्तगू हमसे रही,
हमने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल।
आप मानें या न मानें यह अलग इक बात है,
हर तरफ़ यूँ तो है वातावरण पे छाई ग़ज़ल।
Wednesday, 3 December 2008
बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता
तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता
अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता
तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती,
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता
तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती,
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता
लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं,
लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता।
अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते,
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता।
तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता।
Tuesday, 2 December 2008
अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते।
यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते
न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं,
हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते।
फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में,
वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते।
तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक,
वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते।
चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा,
सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते।