द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Friday, 9 October 2009

मुबारक हो जन्म दिवस !

Posted by Prakash Badal





ख़ुदा करे तुम जीओ क़यामत तक, और क़यामत कभी न हो !




द्विज भाई को जन्म दिवस की हार्दिक मंगलाएँ!


ज़ाहिर तौर पर मीटर से बाहर लिखता हूँ लेकिन फिर भी "द्विज" भाई और उनकी ग़ज़लों का दीवाना तो हूँ ही! 10 अक्तूबर का दिन उनका जन्म दिवस है तो मैंने सोचा कि सभी मित्रों से संदेश लेकर उन्हें बधाई देने से बढ़िया और क्या रहेगा!
मैंने सभी मित्रों को मेल किया कि द्विज भाई के जन्म दिवस पर क्यों न उन्हें जन्म दिवस की शुभकामनाएं एक सरप्राईज़ के तौर दी जाए। बहुत से दोस्तों ने द्विज भाई के जन्म दिवस पर शुभ कामनाएं भी है ।
ज़ाहिर है कि हिन्दी ग़ज़लों जो झरना द्विज भाई के घर से निकलता है उसका प्रवाह दूर-दूर तक जाता है। इस युवा ग़ज़लकार को इनके जन्मदिवस मेरी ओर से ढेरों बधाई और मेरी कामना कि ग़ज़लों का यह उदगम इसी प्रकार अच्छी- और धारदार ग़ज़लें देता रहे और ईश्वर इस युवा ग़ज़लकार को लम्बी और स्वस्थ उम्र दराज़ करे।



इस अवसर पर प्रस्तुत है द्विज भाई की एक ग़ज़ल और कुछ साहित्यिक मित्रों के संदेश “ यद्यपि ग़ज़ल पहले पढ़वाई जा चुकी है, फिर भी मौके के अनुसार दोबारा प्रस्तुत की जा रही है ये “द्विज” की ग़ज़ल “द्विज” के लिए ही










नये साल में


ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में

दिल में हो शादमानी नये साल में


सब के आँगन में अबके महकने लगे

दिन को भी रात-रानी नये साल में


ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन

इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में


इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का

सच की हो पासबानी नये साल में


है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके

नफ़रतों की कहानी नये साल में


बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू

हो यही मेहरबानी नये साल में


राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े

काश हों पानी-पानी नये साल में


वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू


बख़्शना कुछ रवानी नये साल में


ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे

दोस्तों की कहानी नये साल में


हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए

दे उन्हें कामरानी नये साल में


अब के हर एक भूखे को रोटी मिले

और प्यासे को पानी नये साल में


काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से

ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में


देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़

ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में


कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे
द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.






























द्विज भाई के जन्म दिवस पर यूं मिली शुभकामनाएँ:





हर दिल अजीज़ भाई समीर लाल की बधाईयां सबसे पहले न मिले ऐसा कैसे हो सकता है भला। समीर जी ने कहा :
प्रिय प्रकाश भाई,
द्विज जी जन्म दिन के बारे में जानकर खुशी हुई. वो शायद मुझे जानते भी न होंगे लेकिन हम तो शुरु से ही उनके व्यक्तित्व एवं गज़लों के मुरीद हैं. अन्य गज़लकारों का वो जिस तरह निःस्वार्थ मार्गदर्शन करते हैं, वह सराहनीय एवं अनुकरणीय है. उन्हें साधुवाद.ऐसे शुभ अवसर पर मैं उन्हें अपनी बधाईयाँ एवं हार्दिक शुभकामनाएँ देता हूँ.उनकी गज़लों का हमेशा ही इन्तज़ार रहता है.
सादर
समीर लाल


कविता कोश के सम्पादक अनिल जनविजय ने द्विज भाई को एक कविता के माध्यम से बधाई कुछ इस प्रकार भेजी है:
प्रिय द्विज जी को
जिन्हें हम उतना ही प्यार करते हैं
जितना कविता को करते हैं
जिन्हें हम उतना ही प्यार करते हैं
जितना अपने बच्चों को करते हैं
जन्मदिन पर हार्दिक मंगलकामनाएँ।


कवियत्री और सक्रीय ब्लॉगर रंजना भाटिया ने द्विज को बधाई कुछ इस प्रकार से दी है:
“द्विजेंद्र द्विज जी को जन्मदिन की हार्दिक बधाई ईश्वर उनकी हर मनोकामना पूर्ण करे और वह यूँ ही अच्छी अच्छी गजले लिखते रहे “।

युवा ग़ज़लकार प्रकाश सिंह अर्श ने भी द्विज भाई को बधाई दी लेकिन उनकी मेल ग़लती से डिलीट हो गई लेकिन मैने जो पढा उसमें प्रकाश अर्श ने द्विज भाई को अच्छी ग़ज़लें लिखने के लिए बधाई दी है और द्विज भाई की दीर्घायु की कामना की है। प्रकाश भाई मुझे माफ करेंगे जल्दबाज़ी में आपकी टिप्पणी डिलीट हो गई।

युवा ग़ज़लकार दिगम्वर नासवा ने कहा है कि :
प्रकाश जी ......... ये तो बहुत ही अच्छी खबर दी है आपने ...........द्विज जी को हमारी तरफ से जनम दिन की बहुत बहुत शुभकामनाएं .......... भगवान् उनकी कलम में और जादू भरे और हम उनको पढ़ कर आनंदित होते रहें।



चर्चित महिला ब्लॉगर रंजना ने भी द्विज को जन्म दिवस की बधाई कुछ इस प्रकार दी है :
आदरणीय प्रकाश जी ,सूचित करने के लिए बहुत बहुत आभार.....द्विज जी को हमारी ओर से जन्मदिन की अनंत शुभकामनायें दे दें.
सादर
रंजना


सभी के प्यारे और सक्रिय ब्लॉगर, ग़ज़लकार नीरज गोस्वामी ने कहा कि :
प्रकाश जी जान कर बहुत ख़ुशी हुई की भाई द्विज जी का जन्म दिन कल याने दस अक्तूबर को है...विचित्र संजोग हैं जिन दो गुणी जनों ने मुझे ग़ज़ल की पट्टी पढाई उनका जन्म दिन एक दिन के अंतर पर ही आता है याने द्विज जी का दस को पंकज सुबीर जी का ग्यारह अक्तूबर को. द्विज जी को जनम दिन की बहुत बहुत बहुत बधाई...इश्वर उन्हें दुनिया की सारी खुशियाँ अता करे...एक शेर है किसी का उनकी नज़र करता हूँ:
खुदा तो मिलता है इन्सां नहीं मिलता
ये वो शै है जो देखी कहीं कहीं मैंने
द्विज जी इन्सान के रूप में फ़रिश्ता हैं और आज की दुनिया में इस तरह के इन्सान सिर्फ किस्से कहानियों में ही मिलते हैं...उनकी ये सादगी और सबको प्यार बांटने की आदत हमेशा कायम रहे.


युवा कवि हिमांशु पांडे ने तो द्विज भाई की एक अंग्रेज़ी कविता का अनुवाद भी कर डाला और अपनी बधाई कुछ इस प्रकार दी :
प्रकाश जी,आदरणीय द्विज जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें । चिट्ठाकारी में आया तो द्विज जी की गजलों से एक आश्वस्ति भाव जागा , रचनाधर्मिता के अंकुर फूटे इस मन विजन में । द्विज जी का स्नेह सदैव आच्छादित करता रहा है मुझे । सरोकार से जुड़ी रचनाधर्मिता, मानवीयता से संपृक्त रचनाधर्मिता एवं निरंतर शुभ भाव संचारित रचनाधर्मिता द्विज जी की पहचान है, और यही कारण है कि द्विज जी मेरे अनन्य प्रिय हैं । पुनश्च द्विज जी को जन्मदिवस की हार्दिक शुभकामनायें । ईश्वर उन्हें दीर्घायु करे । हिमांशु जी द्वारा अनुवाद की गई द्विज की कविता प्रस्तुत है :
चोटियां और गुफ़ायें (Cliffs and Caverns)
ऊंची कठोर शुष्क गिरि-चोटियां
अपने उन्नतशिर होने की डींग हांकतीं हैं, और
उषाकाल से धेनुधूलि बेला तक
रवि-आतप का शोषण करती
ऊबती-पचती रहती हैं ।
सूर्य किरणों का उज्जवल हास
अभिशप्त शैल-कंदराओं को
कभी सुलभ नहीं होगा? कभी नही ।
हमें तो समतल धरा की गोद चाहिये
कौन जाय ऊंची चोटियों का कलेजा विदीर्ण करने
और उन्हें ध्वस्त कर
गुफ़ा-गर्भ की अधोगति प्रदान करने,
वह उनकी शाश्वत नियति है
वे सोखती ही रहेंगी धूप को
और बघारती ही रहेंगी
अपने उन्नत श्रृंग की शेखी,
गुफ़ायें अंध-तमिस्रा में ठिठुरती ही रहेंगी.
वैसे इस संदर्भ में यदि द्विज जी से अनुमति लेनी ठीक और आवश्यक हो तो आप ले लेंगे । मूल कविता भी उनसे प्राप्त की जा सकती है । शेष आपकी इच्छा ।
आपका,
हिमांशु



कुछ शुभकामनाएं देर से मिली लेकिन इन्हें प्रकाशित करना ज़रूरी लगा




युवा कवि,पत्रकार और द्विज भाई के अनुज नवनीत शर्मा कहते हैं:

पिता तुल्य,प्रेरणापुंज खुद तकलीफ सहकर भी छोटों को सुख देने वाले ,क़ॉलेज के दिनों में जेब ख़र्च बचाकर सारिका ख़रीदकर पढ़ने वाले और मुझे भी उसकी आदत डालने वाले आदरणीय भाई द्विज को जन्म दिन की हार्दिक शुभकामनाएं।


ग़ज़लकार माधव कौशिक जी ने भी द्विज भाई को जन्म दिन के शुभकामनाएं भेजी है माधव जी ने कुछ यूँ लिखा है:
भाई द्विज को जन्म दिन की लाख-लाख बधाई. भगवान करे वे इसी तरह अदब के आसमान पर चमकते रहें ।

Tuesday, 6 October 2009

हर क़दम पर खौफ़ की सरदारियाँ रहने लगें
काफिलों में जब कभी ग़द्दारियाँ रहने लगें

नीयतें बद और कुछ बदकारियाँ रहने लगें
सरहादों पर क्यों न गोलाबारियाँ रहने लगें

हर तरफ़ लाचारियाँ,दुशवारियाँ रहने लगें
सरपरस्ती में जहाँ मक्कारियाँ रहने लगें

हर तरफ़ ऐसे हक़ीमों की अजब—सी भीड़ है
चाहते हैं जो यहाँ बीमारियाँ रहने लगें

फिर ख़ुराफ़त के जंगल ही क्यों न उग आएँ वहाँ
ज़ेह्न में अकसर जहाँ बेकारियाँ रहने लगें

क्यों न सच आकर हलक में ही अटक जाए कहो
गरदनों पर जब हमेशा आरियाँ रहने लगें

उनकी बातों में है जितना झूठ सब जल जाएगा
आपकी आँखों में गर चिंगारियाँ रहने लगें

है महक मुमकिन तभी सारे ज़माने के लिए
सोच में ‘द्विज’, कुछ अगर फुलवारियाँ रहने लगें.

Tuesday, 29 September 2009

कहाँ पहुँचे सुहाने मंज़रों तक
वो जिनका ध्यान था टूटे परों तक

जिन्हें हर हाल में सच बोलना था
पहुँचना था उन्हीं को कटघरों तक

लकीरों को बताकर साँप अकसर
धकेला उसने हमको अजगरों तक

नज़र अंदाज़ चिंगारी हुई थी
सुलगकर आग फैली है घरों तक

ये कौन आया हमारी गुफ्तगू में

दिलों की बात पहुँची नश्तरों तक

उसे ही नाख़ुदा कहते रहे हम
हमें लाता रहा जो गह्वरों तक

ज़रा तैरो, बचा लो ख़ुद को , देखो
लो पानी आ गया अब तो सरों तक

सलीक़ा था कहाँ उसमें जो बिकता
सुख़न पहुँचा नहीं सौदागरों तक

निशाँ तहज़ीब के मिलते यक़ीनन
कोई आता अगर इन खण्डरों तक

नहीं अब ज़िन्दगी मक़सद जब उसका
तो महज़ब लाएगा ही मक़बरों तक

निचुड़ना था किनारों को हमेशा
नदी को भागना था सागरों तक

बचीं तो कल्पना बनकर उड़ेंगी
अजन्मी बेटियाँ भी अम्बरों तक

अक़ीदत ही नहीं जब तौर ‘द्विज’ का
पहुँचता वो कहाँ पैग़म्बरों तक

Saturday, 25 July 2009

पंख कुतर कर जादूगर जब चिड़िया को तड़पाता है
सात समंदर पार का सपना , सपना ही रह जाता है

जयद्रथहो यादुर्योधनहो सबसे उसका नाता है
अब अपना गाँडीव उठातेअर्जुनभी घबराता है

जब सन्नाटों का कोलाहल इक हद से बढ़ जाता है
तब कोई दीवाना शायर ग़ज़लें बुन कर लाता है

दावानल में नए दौर के पंछी ने यह सोच लिया
अब जलते पेड़ों की शाख़ों से अपना क्या नाता है


प्रश्न युगों से केवल यह है हँसती-गाती धरती पर
सन्नाटे के साँपों को रह-रह कर कौन बुलाता है

सब कुछ जानेब्रह्माकिस मुँह पूछे इन कंकालों से
इस धरती पर शिव ताण्डव-सा डमरू कौन बजाता है

द्विज’! वो कोमल पंख हैं डरते अब इक बाज के साये से
जिन पंखों से आस का पंछी सपनों को सहलाता है।

Thursday, 21 May 2009

जितना दिखता हूँ मुझे उससे ज़ियादा समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता समझ

जो तक़ल्लुफ़ है उसे हर्फ़े-तमन्ना समझ
मुस्कुराहट को मुहब्बत का इशारा समझ

यह तेरी आँख के धोखे के सिवा कुछ भी नहीं
एक बहते हुए दरिया को किनारा समझ

एक दिन चीर के निकलेंगे वो तेरी आँतें
वो भी इन्साँ हैं उन्हें अपना निवाला समझ

वह तुझे बाँटने आया है कई टुकड़ों में
मुस्कुराते हुए शैताँ को मसीहा समझ

जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ दिया
उन किताबों के उजाले को उजाला समझ

छोड़ जाएगा तेरा साथ अँधेरे में यही
यह जो साया है तेरा इसको भी अपना समझ

यह जो बिफरा तो डुबोएगा सफ़ीने कितने
तू इसे आँख से टपका हुआ क़तरा समझ

है तेरे साथ अगर तेरे इरादों का जुनूँ
क़ाफ़िला है तू अभी ख़ुद को अकेला समझ

तुझ से ही माँग रहा है वो तो ख़ुद अपना वजूद
ख़ुद भिखारी है उसे कोई ख़लीफ़ा समझ

बढ़ कुछ आगे तो मिलेंगे तुझे मंज़र भी हसीं
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा समझ

साथ मेरे हैं बुज़ुर्गों की दुआएँ इतनी
मैं हूँ महफ़िल तू मुझे आज भी तनहा समझ

शायरी आज भी उनकी है नईद्विजख़ुद को
ग़ालिब--मीर या मोमिन से भी ऊँचा समझ

Friday, 10 April 2009

...चुटकी में

Posted by Prakash Badal

भाई सतपाल"ख़्याल" ने एक महफिल सजाई "आज की ग़ज़ल" पर जिसमें मिसरा-ए-तरह "कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे" पर ग़ज़ल कही जानी थी। बड़े-बड़े शायरों ने इसमें भाग लिया और ये बहुत ही सफल आयोजन रहा। यहाँ पर "द्विज "भाई के काफियों का पिटारा जो खुला तो खुलता ही गया हमेशा की तरह। यह ग़ज़ल आपकी नज़्र कर रहा हूँ। -प्रकाश बादल




मिटा दे तू मेरे खेतों से खरपतवार चुटकी में
तो फ़स्लें मेरे सपनों की भी हों तैयार चुटकी में

हवा के रुख़ से वो भी हो गये लाचार चुटकी में
हवा का रुख़ बदल देते थे जो अख़बार चुटकी में

कभी अँधियार चुटकी में कभी उजियार चुटकी में
कभी इन्कार चुटकी मे,कभी इक़रार चुटकी मे

भले मिल जाएगा हर चीज़ का बाज़ार चुटकी में
नहीं बिकता कभी लेकिन कोई ख़ुद्दार चुटकी में

बहुत थे वलवले दिल के मगर अब सामने उनके
उड़न-छू हो गई है ताक़त-ए-गुफ़्तार चुटकी में

अजब तक़रीर की है रहनुमा ने अम्न पर यारो !
निकल आए हैं चाकू तीर और तलवार चुटकी में

तरीक़ा, क़ायदा, क़ानून हैं अल्फ़ाज़ अब ऐसे
उड़ाते हैं जिन्हें कुछ आज के अवतार चुटकी में

कभी ख़ामोश रहकर कट रहे रेवड़ भी बोलेंगे
कभी ख़ामोश होंगे ख़ौफ़ के दरबार चुटकी में

वो जिनकी उम्र सारी कट गई ख़्वाबों की जन्न्त में
हक़ीक़त से कहाँ होंगे भला दो-चार चुटकी में

नतीजा यह बड़ी गहरी किसी साज़िश का होता है
नहीं हिलते किसी घर के दरो-दीवार चुटकी में

डरा देगा तुम्हें गहराइयों का ज़िक्र भी उनकी
जो दरिया तैर कर हमने किए हैं पार चुटकी में


परिन्दे और तसव्वुर के लिए सरहद नहीं होती
कभी इस पार चुटकी में कभी उस पार चुटकी में.

बस इतना ही कहा था शहर का मौसम नहीं अच्छा
सज़ा का हो गया सच कह के ‘द्विज’ हक़दार चुटकी में

Sunday, 15 March 2009

....कोई हादसा दे जाएगा

Posted by Prakash Badal

अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा

और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा


फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ

जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा


‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर

‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा


क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं

और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा


ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब

ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा

Sunday, 22 February 2009

ख़ौफ़ आँखों में.........

Posted by Prakash Badal

ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता।

शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता।


कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना,

पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता।


आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए,

हाँ, मगर उनपे कोई ‘पर’ नहीं रहने देता।


ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर,

दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता।


एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर,

जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता।


उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है,

ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता।


हादिसों का ही धुँधलका–सा ‘द्विज’ आँखों में मेरी,

ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता।

Tuesday, 10 February 2009

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|

लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर,
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी|

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|

कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने,
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी|

Wednesday, 21 January 2009

लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “द्विज” की ग़ज़लों को देखकर ऐसा लगता है मानो काफिए आग्रह कर रहे हों कि “द्विज” भाई हमें भी प्रयोग कर लें”, इससे पहले ‘द्विज’ की एक ग़ज़ल पोस्ट की थी तो मैने सोचा था कि पिछली ग़ज़ल में 11 शेर बहुत ज़्यादा हैं लेकिन हैरानी तब हुई जब उसी बहर में 11 शेरों की एक और ग़ज़ल ‘द्विज’ भाई ने भेज दी और उसका भी एक से एक शेर लाजवाब। वरिष्ट साहित्यकार श्री महावीर शर्मा ने तो अपने विचारों में “द्विज” जी की इस बहर को अपनी सबसे पसंदीदा बहर कहते हुए द्विज भाई की सराहना की थी अब द्विज भाई की एक अन्य ग़ज़ल आपकी नज़्र है। (प्रकाश बादल)


लौट कर आए हो अपनी मान्यताओं के ख़िलाफ़

थे चले देने गवाही कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़


जो हमेशा हैं दुआओं प्रार्थनाओं के ख़िलाफ़

आ रही है बद्दुआ फिर उन खुदाओं के ख़िलाफ़


मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम

कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़


आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी

यूँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़


फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुस्कुराहट, तितलियाँ

ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़


रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं

बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़


सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब

कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़


भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ

माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़


कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम

हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़


तजरिबे कर के ही लाती है दलीलें भी तमाम

हर नई पीढ़ी पुरानी मान्यताओं के ख़िलाफ़


अब ग़ज़ल, कविता कहानी गीत क्या देंगे हमें

लिख रही हैं 'द्विज'! विधाएँ ही विधाओं के ख़िलाफ़

Sunday, 4 January 2009

ग़जल

Posted by Prakash Badal

जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़।

हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के ख़िलाफ़।


जो ख़ताएँ कीं नहीं , उन पर सज़ाओं के ख़िलाफ़,

किस अदालत में चले जाते ख़ुदाओं के ख़िलाफ़।


जिनकी हमने बन्दगी की , देवता माना जिन्हें,

वो रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़।


ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ,

यह सदी पत्थर—सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़।


सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें,

हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़।


ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़,

कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़।


आदमी से आदमी, दीपक से दीपक दूर हों,

आज की ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़।


जो अमावस को उकेरें चाँद की तस्वीर में,

थामते हैं हम क़लम उन तूलिकाओं के ख़िलाफ़।


रक्तरंजित सुर्ख़ियाँ या मातमी ख़ामोशियाँ,

सब गवाही दे रही हैं कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़।


आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन,

पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़।


‘एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊँगी आख़िर तुम्हें,

ख़ुद हवा पैग़ाम थी काली घटाओं के ख़िलाफ़।

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