लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “द्विज” की ग़ज़लों को देखकर ऐसा लगता है मानो काफिए आग्रह कर रहे हों कि “द्विज” भाई हमें भी प्रयोग कर लें”, इससे पहले ‘द्विज’ की एक ग़ज़ल पोस्ट की थी तो मैने सोचा था कि पिछली ग़ज़ल में 11 शेर बहुत ज़्यादा हैं लेकिन हैरानी तब हुई जब उसी बहर में 11 शेरों की एक और ग़ज़ल ‘द्विज’ भाई ने भेज दी और उसका भी एक से एक शेर लाजवाब। वरिष्ट साहित्यकार श्री महावीर शर्मा ने तो अपने विचारों में “द्विज” जी की इस बहर को अपनी सबसे पसंदीदा बहर कहते हुए द्विज भाई की सराहना की थी अब द्विज भाई की एक अन्य ग़ज़ल आपकी नज़्र है। (प्रकाश बादल)
लौट कर आए हो अपनी मान्यताओं के ख़िलाफ़
थे चले देने गवाही कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़
जो हमेशा हैं दुआओं प्रार्थनाओं के ख़िलाफ़
आ रही है बद्दुआ फिर उन खुदाओं के ख़िलाफ़
मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम
कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़
आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी
यूँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़
फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुस्कुराहट, तितलियाँ
ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़
रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब
कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़
भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ
माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़
कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम
हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़
तजरिबे कर के ही लाती है दलीलें भी तमाम
हर नई पीढ़ी पुरानी मान्यताओं के ख़िलाफ़
अब ग़ज़ल, कविता कहानी गीत क्या देंगे हमें
लिख रही हैं 'द्विज'! विधाएँ ही विधाओं के ख़िलाफ़
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
38 comments:
बहुत ख़ूब, ऐसे उम्दा लिखते रहें, शुभकामनाएँ
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
प्रकाश भाई आपने द्विज जी के बेहतरीन ग़ज़ल से रूबरू कराया ढेरो आभार आपका ....
अर्श
फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुस्कुराहट, तितलियाँ
ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़"
मैं इन पंक्तियों का मुरीद हो गया हूं. बेहतरीन पंक्तियां. हिन्दी गजलों की शानदार प्रस्तुति है यहां.
रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
... अत्यंत प्रसंशनीय अभिव्यक्ति है।
द्विज साहब का पढ़ना हमेशा ही सुखद होता है. बहुत आनन्द आया.
प्रकाश भाई, आपका आभार.
Thanks Badal ji,
dwij ji ko pranam!!
saadar, khyaal
मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम
कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़
द्विज जी की गज़लों में भी एक विद्रोही का भावः नज़र आता है, जैसे इस व्यवस्था की ख़िलाफ़ कोई युद्ध छेड़ रक्खा है
बहुत ही निराला अंदाज़ है लिखने का.........मज़ा आ जाता है
DWIJ JEE,AAPKE HAR GAZAL NAVEEN
BHAAV SAMETE HUE HOTEE HAI.PADH
KAR MAN KO BHARPOOR SANTUSHTI HOTEE
HAI.YUN TO AAPKE SABHEE SHER EK SE
BADHKAR EK HAIN LEKIN YE SHER
SAHITYIK GUTON MEIN BANTE HUE LOGON
PAR ZABARDAST VYANGYA HAI---
AB GAZAL ,KAVITA,KAHANI,GEET
KYA DENGE HAMEN
LIKH RAHEE HAIN "DWIJ" VIDHAAYEN
HEE VIDHAAON KE KHILAAF.
BAHUT-BAHUT BADHAAEE.
गणतंत्र दिवस पर आपको ढेर सारी शुभकामनाएं
तमाम शब्दों,तमाम प्रशंसाओं से परे...."रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं/बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़" शेर पढ़्ता जाता हूं और अवाक हो जाता हूं...फिर दूजे फिर तीसरा फिर चौथा ...किसपे उफ करें,किसपे वाह "सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब/कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़" और उपर प्रकाश जी आपने वो सब कह दिया,लेकिन यहां तो महज काफ़िये ही नहीं,हर शब्द,हर भाव इतनी सहजता इतनी रमनीयता से और साथ ही एक उबलता आक्रोश दबाये गज़ल के छंद पर बैठे दिखते हैं कि मन में आश्चर्य,आदर,प्रशंसा इन सब के तमाम मिले-जुले उद्गार उठ कर आपस में गड्ड-मड्ड हो जाते हैं....
द्विज जी को दंडवत प्रणाम
'द्विज' जी की एक और ख़ूबसूरत ग़ज़ल! पढ़ कर देखिए चाहे तरन्नुम में कहिए या किसी
उचित राग की बंदिश में डाल कर गाईये, कहीं भी प्रवाह में अटकाव नहीं। संपूर्ण ग़ज़ल
है और ग़ज़ल में हिंदी शब्दों के सुंदर प्रयोग से हिंदी काव्य के प्रसार में भी सहायक मानी
जाएगी। वाह!
आख़िरी शेर में बड़ी संयत भाषा में सुंदर व्यंग्य हैः
अब ग़ज़ल, कविता कहानी गीत क्या देंगे हमें
लिख रही हैं 'द्विज'! विधाएँ ही विधाओं के ख़िलाफ़
हां, शायद 'ख़ुदाओं' शब्द पर किसी को आपत्ति हो सकती है क्योंकि 'ख़ुदा' तो सिर्फ़ एक
ही होता है, लेकिन पूरी ग़ज़ल पढ़ने पर शंका दूर हो जाती है जहां द्विज जी ने 'मज़हब का
जुनूं' का इस्तेमाल किया है। आज इंसान ने अलग अलग मज़हबों के अलग अलग ख़ुदा पैदा
कर दिए हैं। तो 'ख़ुदाओं' शब्द सही है।
एक बात भूल गया। आपके ब्लॉग का टैम्पलेट बहुत सुंदर लगा। बधाई।
कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम
हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़
-सच ही कह रहे हैं आप --द्विज जी की गज़लें बहुत अच्छी हैं..
काफिये कहते हैं--[“द्विज” भाई हमें भी प्रयोग कर लें”-आप ने कहा---
अतिशयोक्ति बिल्कुल नहीं लगा.
प्रकाश जी, ऐसे ही द्विज जी की नायाब गज़लें पद्वते रहीये.आप को धन्यवाद.
मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम
कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़
Dwij ji ka ye sher bhaut pasand aaya
Prakash ji dhanyvaad aapne jo bida uthaya hai wo bhaut badha kaam hai
aaj aapki puri profile dekhi
aapka gazal ke parti pyaar dekha
bhagwaan aapka marg prashat kare aur aap aise hi aage badhet rahe
लिख रही हैं "द्विज" विधाएं ही विधाओं के ख़िलाफ़
हर जगह पर तो वार किया है आपने एक ही पंक्ति से .....और मज़ा ये के दुबारा उसी ज़मीन पर उतनी ही बेहतर ग़ज़ल......
प्रकाश जी का कहना ठीक ही है ...........
कोई तो सेटिंग कर रखी है आपने काफियों से
गणतंत्र दिवस पर आप को हार्दिक शुभ कामना .
आपका लिखा लेख अच्छा हें
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल के लिये बधाई द्विज जी.. प्रस्तुति के लिये प्रकाश जी को...
प्रकाश भाई जी बहुत सुंदर लिखा आप ने, बहुत बहुत धन्यवाद, बस शव्दो का आकार थोडा बडा कर दे.
शीर्ष टिप्पणीकार जो आप का नही चल रहा इस मे थोडी गलती है, अगर आप इसे सुधार ले तो यह झट से चलने लगेगा... आप ने बस इतना ही करना है, कि अपना ब्लांग का पता कुछ ऎसे लिखना है...फ़िर से जहां से आप ने इसे लिया है..
http://www.dwijendradwij.blogspot.com/
इस की जगह सिर्फ़...
www.dwijendradwij.blogspot.com
'हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़'
बहुत,बहुत ख़ूब!
वाह वाह राज भाई आप ने तो मेरी समस्या का चुटकियोँ में हल कर दिया। शुक्रिया। मुझे तो लगा था कि टैम्प्लैट में ही कुछ ग़ड़बड़ी है।
आप को ग़णतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं
रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
Waah....! Dwij ji fir ek umda gazal....!
"जब तखय्युल में कशिश हो,
आस हो, ऐलान हो ,
लफ्ज़ ख़ुद लड़ते हैं फिर
सारी बलाओं के ख़िलाफ़.."
द्विज साहब की ग़ज़ल का हर शेर हमेशा-हमेशा अपने आप में मुकम्मिल होता है ..
और ये इस बात की तसदीक़ है कि ग़ज़ल जैसी हरदिल अज़ीज़ सिन्फे-सुखन
आज भी बा-वक़ार है .......
मेरी जानिब से ढेरों मुबारकबाद कुबूल फरमाएं .........!
---मुफलिस---
जनाबे-द्विज साहब !
खुश - आमदीद .........
आपकी आमद का शुक्रिया .......!!
---मुफलिस---
aapne jo mujhe prem aur sneh diya hai ,mai usse bahut anugrahit hoon,aapka sahyog isi tarah milta rahe,isi kamna me hoon.
पूर्णिमा जी, लेख नहीं ग़ज़ल है शायद आपका ध्यान कहीं और है। अगर आप ग़ज़ल पढ़ कर कमैंट करतीँ तो खुशी होती। और हाँ ! गणतंत्र दिवस की आपको भी ढेरों बधाई।
जो हमेशा हैं दुआओं प्रार्थनाओं के ख़िलाफ़
आ रही है बद्दुआ फिर उन खुदाओं के ख़िलाफ़
कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम
हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़
bahut badhiya...!
सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब
कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़
भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ
माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़
हमेशा की तरह ही शानदार
'
bouth he aacha post hai ji
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Nice Blog..keep it up.
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''युवा'' ब्लॉग युवाओं से जुड़े मुद्दों पर अभिव्यक्तियों को सार्थक रूप देने के लिए है. यह ब्लॉग सभी के लिए खुला है. यदि आप भी इस ब्लॉग पर अपनी युवा-अभिव्यक्तियों को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो amitky86@rediffmail.com पर ई-मेल कर सकते हैं. आपकी अभिव्यक्तियाँ कविता, कहानी, लेख, लघुकथा, वैचारिकी, चित्र इत्यादि किसी भी रूप में हो सकती हैं.
शानदार
Dwij Sir,
Greetings.
Fantabolous,
poora ka poora blog pad daala.
poora padhne wale blogs mein se....
...kuch chuninda blogs mein se ek....
i am so very impressed with your writing that i've said umpteen times,mention umpteen times,and advised several friends of mine to check the blog of yours as in to learn something moreover to enjoy perfect writing & reading pleasure.....
Obviously is not postin anything for this specific ghazal since i've gone through entire blog and it's very tough to comment in one place about the entire blog.
P.S. : apki ghazloon mein pahadi look dikhta hai, which facinates me more. Since i am from Uttarakhand.
फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुस्कुराहट, तितलियाँ
ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़
Man ko chu gayi.
sir aapke kahe anusaar gajal likhnen ki koshish ki thee ..aur ek gajal subah mail se aapko bhej bhee dee thee...doosaree abhee abhee likhee hai pata nahin theek hai bhee ya nahin ...aapki pratikriyaa ka intajaar rahegaa
जिस ग़ज़ल को गुरु देव प्राण साहेब और आदरणीय महावीर जी ने प्रभावित किया है उसके बारे में मैं अब क्या कहूँ?...लाजवाब...
नीरज
एक नयापन लिये लाजबाब गजल पढवाने के लिये द्विज जी और प्रकाश जी का आभार
एक और उम्दा गज़ल पडी़ , आनन्द आ गया ,
आज अचानक से इस ब्लोग पर आई पर यहाँ उम्मीद से बहुत ज्यादा और अच्छा मिला पढ़ने को ,
धन्यवाद
हेम ज्योत्स्ना "दीप"
आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी
यूँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़
रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
वाकई कमाल है द्विज भाई
श्याम सखा
आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी
यूँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़
रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं
बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़
सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब
कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़
भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ
माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़
किसी भी शायर को हमेशा के लिए जिंदा रखने को ये चार शेर ही बहुत हैं....द्विज जी लफ्जों से चमत्कार करते हैं...उनकी शायरी तेज़ गर्मी में अचानक आयी रिमझिम फुहारों जैसी है...ताजा और खुशबूदार...वाह प्रकाश जी कैसे आपका शुक्रिया अदा किया जाये क्यूँ की आपही की बदौलत ये खजाना हमें लूटने को मिल रहा है...
नीरज
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