अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|
मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|
लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर,
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी|
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|
कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने,
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी|
मेरे हिस्से के डॉ. मेघ
5 weeks ago
30 comments:
बहुत खूब रचना है, मिटटी से आपका प्रेम छलक कर आया है ।
मिटटी से थोड़ा बहुत प्यार हमें भी है, सो हमने भी कभी 'मिटटी' नाम से तुकबंदी की थी! कभी देखियेगा।
mai jahan bhi thaa mera saath na chhoda usne zahan me mere mahakti rahi mitti meri bahut hi lajvaab gazal hai badhai
bahut sahi sundar gazal maati ki khushbu liye.
अब द्विज जी के लिए क्या कहूँ....जितने बेहतरीन इंसान हैं उतनी ही बेहतरीन शायरी करते हैं...अब इसी ग़ज़ल को ले लीजिये....एक एक शेर मोतियों की तरह जड़ा हुआ है....और हीरे की तरह चमक रहा है...किसी एक शेर की तारीफ करने से दूसरे शेर के साथ बे इंसाफी होगी...द्विज जी ग़ज़ल लेखन के उस्ताद हैं....हम भी उन की रहनुमाई में जितना हो सकता है सीखने की कोशिश करते हैं....इश्वर उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाए...
नीरज
बहुत ही ख़ूब! हर शेर बेमिसाल और भावनाओं
से भरपूर। किसकी तारीफ़ करें और किसे छोड़ें?
बहुत अच्छी ग़ज़ल है, सुन्दर प्रस्तुति
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गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम
सुन्दर ग़ज़ल है,बहुत अच्छी प्रस्तुति है.
आपने तो कुछ पंक्तियों में ही जीवन का फलसफा समेट दिया...बहुत सुंदर.
द्विज जी नमस्कार,
आप तो गुरु सरीके है मेरा आपके ग़ज़ल पे टिप्पणी देना ख़ुद को पाप का भागी बनाना है,मगर क्या करूँ ... पुरी ज़िन्दगी को आपने बस एक ही ग़ज़ल में समेत दिया आपने ,हर शे'र सहेजने लायक और सिखाने लायक है मैं अदना क्या कहूँ आपकी ग़ज़लों से सीखता रहूँ और आपका आशीर्वाद मिले यही दुआ करूँगा ...
आपका
अर्श
बहुत ही बेहतर मुसल्सल ग़ज़ल कही है आपने... बहुत-बहुत बधाई द्विज जी..
aapki 4-5 gazal maine audio me suni thi...
tab bhi aapko bataya tha...ke mujhe ye gazal bahut pasand aai hai.
is gazal ki tareef shabdo mei nahin kar sakta...
Agar koi NRI padh le, to ro hi dega...desh prem kooT kooT kar bhara hai...apni matra-bhoomi ke liye...
Too Good...
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|
सभी शेर सुंदर नगीने हैं .बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है.
दिल को छू गई..ऐसा लगता है हमारे दिल की ही बात कह रही है यह ग़ज़ल..
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|
कमाल के शेर ... लेकिन इस शेर ने घर कर लिया इस मिट्टी में ...
यहाँ तो एक मिसरे के लाले पड़े थे...और आपने तो...भरी पूरी जिंदा ग़ज़ल ही पढ़वा दी...
कोई शेर वेर कहने की सोचता ...भी..
पर आप कुछ छोड़ते ही कहाँ हैं....
अब बस जल्दी से संपर्क में आ जाइए....
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|
अजी आप ने तो मेरे दिल का दर्द ही ब्यान कर दिया, बहुत सुंदर लगी आप की यह गजल.
बहुत बहुत धन्यवाद
द्विज जी की इतनी खूबसूरत ग़ज़ल......मेरे जैसे कई लोगों के दिल के दर्द को कुछ ही शब्दों में उतार दिया है, एक एक शेर में जैसे नगीने जड़े हों, खूबसूरत एहसास, मिट्टी की यादें समेटे यह ग़ज़ल........देश से दूर रहने वाले हर हिन्दुस्तानी की दिल की आवाज़ है ...................नमन है आपकी कलम को
मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|
bahut khub
एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने के लिए तहे-दिल से शुक्रिया सर. एक-एक लफ़्ज़ बोलता है . मै तो आपका शाग्रिद हूँ मेरी तरफ़ से आपको प्रणाम.
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
परदेस मे मरे किसी शख्स की पीड़ा को लिबास पहना दिया आपने.
आपके नाम के साथ जुड़े होने का गर्व है मुझे.
सादर ख्याल
द्विज जी को सादर प्रणाम और आदरणीय प्रकाश भाई को सहस्त्रों धन्यवाद ...
वाह "कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा/मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी"
किस शेर को पकड़ूं किसे छोड़ू...जितना पढ़ते जाता हूँ आपको,मिलने की उत्कंठा बढ़ती जाती है....
Wah Dwij saheb, buht khoob. Anokhi radeef, aur lafz "Mitti" ka bada hi ba-maani aur khubsurat istemal.
Reaally superb...Wow nice gazal..
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|
Regards..
Dwij jee ,
bahut dinon ke baad ek
achchhe gazal padhne ko milee
hai.Aesee behtreen gazal ko padhne
ke liye man taras jaataa hai.Ek-
ek sher goya sachche motion se jadaa huaa hai.Naanaa badhaaeean,
द्विज जी
अपनी जड़ों से अलग हो कर दूसरी जगह हम आ तो जाते हैं मगर जिस्म यहाँ और रूह वहां वाला हिसाब है.. इस सोच व दर्द को बड़ी खूबसूरती से आपने अपनी गजल में बयान किया है.. .. मनभाती ग़ज़ल पढ़वाने के लिए आभार
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
बहुत बढ़िया एक एक लफ्ज़ अच्छा लिखा है आपने ..
द्विज जी एक बात पुछूँ...? कहाँ से लाते हैं ऐसी सोच...? एक से बढकर एक शे'र है सभी...
नीरज जी कितना सच कहा है कि किसकी तारीफ करें और किसकी न करें...
अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|
मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|
वाह...एक-एक लफ़्ज़ बोलता है . ....
अति सुंदर .
अब आप तो गज़लकार ही है, सो बेहतरीन ग़ज़ल आपकी कलम से निकलना स्वाभाविक ही है...
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा मुझे आपके शब्दों से.
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|
बेहतरीन
सुन्दर अभिव्यक्ति
बहुत उम्दा गज़ल. आनन्द आ गया पढ़कर.
बहुत नायाब गज़ल , मिट्टी से जुडी़ हुई रचना ... दिल में उतर गई ,
धन्यवाद के साथ
सादर
हेम ज्योत्स्ना "दीप"
too good
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