द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Tuesday, 10 February 2009

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|

लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर,
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी|

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|

कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने,
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी|

30 comments:

Anonymous said...

बहुत खूब रचना है, मिटटी से आपका प्रेम छलक कर आया है ।
मिटटी से थोड़ा बहुत प्यार हमें भी है, सो हमने भी कभी 'मिटटी' नाम से तुकबंदी की थी! कभी देखियेगा।

निर्मला कपिला said...

mai jahan bhi thaa mera saath na chhoda usne zahan me mere mahakti rahi mitti meri bahut hi lajvaab gazal hai badhai

Anonymous said...

bahut sahi sundar gazal maati ki khushbu liye.

नीरज गोस्वामी said...

अब द्विज जी के लिए क्या कहूँ....जितने बेहतरीन इंसान हैं उतनी ही बेहतरीन शायरी करते हैं...अब इसी ग़ज़ल को ले लीजिये....एक एक शेर मोतियों की तरह जड़ा हुआ है....और हीरे की तरह चमक रहा है...किसी एक शेर की तारीफ करने से दूसरे शेर के साथ बे इंसाफी होगी...द्विज जी ग़ज़ल लेखन के उस्ताद हैं....हम भी उन की रहनुमाई में जितना हो सकता है सीखने की कोशिश करते हैं....इश्वर उन्हें बुलंदियों पर पहुंचाए...

नीरज

Dr. Amar Jyoti said...

बहुत ही ख़ूब! हर शेर बेमिसाल और भावनाओं
से भरपूर। किसकी तारीफ़ करें और किसे छोड़ें?

Vinay said...

बहुत अच्छी ग़ज़ल है, सुन्दर प्रस्तुति


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गुलाबी कोंपलें | चाँद, बादल और शाम

महेन्द्र मिश्र said...

सुन्दर ग़ज़ल है,बहुत अच्छी प्रस्तुति है.

प्रताप नारायण सिंह (Pratap Narayan Singh) said...

आपने तो कुछ पंक्तियों में ही जीवन का फलसफा समेट दिया...बहुत सुंदर.

"अर्श" said...

द्विज जी नमस्कार,
आप तो गुरु सरीके है मेरा आपके ग़ज़ल पे टिप्पणी देना ख़ुद को पाप का भागी बनाना है,मगर क्या करूँ ... पुरी ज़िन्दगी को आपने बस एक ही ग़ज़ल में समेत दिया आपने ,हर शे'र सहेजने लायक और सिखाने लायक है मैं अदना क्या कहूँ आपकी ग़ज़लों से सीखता रहूँ और आपका आशीर्वाद मिले यही दुआ करूँगा ...

आपका
अर्श

योगेन्द्र मौदगिल said...

बहुत ही बेहतर मुसल्सल ग़ज़ल कही है आपने... बहुत-बहुत बधाई द्विज जी..

Yogi said...

aapki 4-5 gazal maine audio me suni thi...
tab bhi aapko bataya tha...ke mujhe ye gazal bahut pasand aai hai.

is gazal ki tareef shabdo mei nahin kar sakta...

Agar koi NRI padh le, to ro hi dega...desh prem kooT kooT kar bhara hai...apni matra-bhoomi ke liye...

Too Good...

Alpana Verma said...

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|

सभी शेर सुंदर नगीने हैं .बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है.
दिल को छू गई..ऐसा लगता है हमारे दिल की ही बात कह रही है यह ग़ज़ल..

अमिताभ मीत said...

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|

कमाल के शेर ... लेकिन इस शेर ने घर कर लिया इस मिट्टी में ...

manu said...

यहाँ तो एक मिसरे के लाले पड़े थे...और आपने तो...भरी पूरी जिंदा ग़ज़ल ही पढ़वा दी...
कोई शेर वेर कहने की सोचता ...भी..
पर आप कुछ छोड़ते ही कहाँ हैं....
अब बस जल्दी से संपर्क में आ जाइए....

राज भाटिय़ा said...

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|
अजी आप ने तो मेरे दिल का दर्द ही ब्यान कर दिया, बहुत सुंदर लगी आप की यह गजल.
बहुत बहुत धन्यवाद

दिगम्बर नासवा said...

द्विज जी की इतनी खूबसूरत ग़ज़ल......मेरे जैसे कई लोगों के दिल के दर्द को कुछ ही शब्दों में उतार दिया है, एक एक शेर में जैसे नगीने जड़े हों, खूबसूरत एहसास, मिट्टी की यादें समेटे यह ग़ज़ल........देश से दूर रहने वाले हर हिन्दुस्तानी की दिल की आवाज़ है ...................नमन है आपकी कलम को

makrand said...

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|

bahut khub

सतपाल ख़याल said...

एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल पढ़वाने के लिए तहे-दिल से शुक्रिया सर. एक-एक लफ़्ज़ बोलता है . मै तो आपका शाग्रिद हूँ मेरी तरफ़ से आपको प्रणाम.
कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|
परदेस मे मरे किसी शख्स की पीड़ा को लिबास पहना दिया आपने.
आपके नाम के साथ जुड़े होने का गर्व है मुझे.

सादर ख्याल

गौतम राजऋषि said...

द्विज जी को सादर प्रणाम और आदरणीय प्रकाश भाई को सहस्त्रों धन्यवाद ...
वाह "कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा/मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी"
किस शेर को पकड़ूं किसे छोड़ू...जितना पढ़ते जाता हूँ आपको,मिलने की उत्कंठा बढ़ती जाती है....

Dost Mohammed Khan said...

Wah Dwij saheb, buht khoob. Anokhi radeef, aur lafz "Mitti" ka bada hi ba-maani aur khubsurat istemal.

Dev said...

Reaally superb...Wow nice gazal..
सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|
Regards..

Anonymous said...

Dwij jee ,
bahut dinon ke baad ek
achchhe gazal padhne ko milee
hai.Aesee behtreen gazal ko padhne
ke liye man taras jaataa hai.Ek-
ek sher goya sachche motion se jadaa huaa hai.Naanaa badhaaeean,

Mohinder56 said...

द्विज जी
अपनी जड़ों से अलग हो कर दूसरी जगह हम आ तो जाते हैं मगर जिस्म यहाँ और रूह वहां वाला हिसाब है.. इस सोच व दर्द को बड़ी खूबसूरती से आपने अपनी गजल में बयान किया है.. .. मनभाती ग़ज़ल पढ़वाने के लिए आभार

रंजू भाटिया said...

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|

बहुत बढ़िया एक एक लफ्ज़ अच्छा लिखा है आपने ..

हरकीरत ' हीर' said...

द्विज जी एक बात पुछूँ...? कहाँ से लाते हैं ऐसी सोच...? एक से बढकर एक शे'र है सभी...
नीरज जी कितना सच कहा है कि किसकी तारीफ करें और किसकी न करें...

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|

वाह...एक-एक लफ़्ज़ बोलता है . ....

अमिताभ श्रीवास्तव said...

अति सुंदर .
अब आप तो गज़लकार ही है, सो बेहतरीन ग़ज़ल आपकी कलम से निकलना स्वाभाविक ही है...
बहुत कुछ सीखने को मिलेगा मुझे आपके शब्दों से.

अनुपम अग्रवाल said...

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|

बेहतरीन
सुन्दर अभिव्यक्ति

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा गज़ल. आनन्द आ गया पढ़कर.

Anonymous said...

बहुत नायाब गज़ल , मिट्टी से जुडी़ हुई रचना ... दिल में उतर गई ,
धन्यवाद के साथ
सादर
हेम ज्योत्स्ना "दीप"

Suresh Dhiman said...

too good

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