द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Wednesday 31 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

ज़िन्दगी हो सुहानी नये साल में

दिल में हो शादमानी नये साल में


सब के आँगन में अबके महकने लगे

दिन को भी रात-रानी नये साल में


ले उड़े इस जहाँ से धुआँ और घुटन

इक हवा ज़ाफ़रानी नये साल में


इस जहाँ से मिटे हर निशाँ झूठ का

सच की हो पासबानी नये साल में


है दुआ अबके ख़ुद को न दोहरा सके

नफ़रतों की कहानी नये साल में


बह न पाए फिर इन्सानियत का लहू

हो यही मेहरबानी नये साल में


राजधानी में जितने हैं चिकने घड़े

काश हों पानी-पानी नये साल में


वक़्त ! ठहरे हुए आँसुओं को भी तू

बख़्शना कुछ रवानी नये साल में


ख़ुशनुमा मरहलों से गुज़रती रहे

दोस्तों की कहानी नये साल में


हैं मुहब्बत के नग़्मे जो हारे हुए

दे उन्हें कामरानी नये साल में


अब के हर एक भूखे को रोटी मिले

और प्यासे को पानी नये साल में


काश खाने लगे ख़ौफ़ इन्सान से

ख़ौफ़ की हुक्मरानी नये साल में


देख तू भी कभी इस ज़मीं की तरफ़

ऐ नज़र आसमानी ! नये साल में


कोशिशें कर, दुआ कर कि ज़िन्दा रहे

द्विज ! तेरी हक़-बयानी नये साल में.

Wednesday 24 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक।

आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक।


टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी,

अपने ईमाँ की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक।


रहनुमा उनका वहाँ है ही नहीं मुद्दत से,

क़ाफ़िले वाले किसे ढूँढ रहे हैं अब तक।


अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वरना,

हम हक़ीक़त तो तेरी जान चुके हैं अब तक।


फ़त्ह कर सकता नहीं जिनको जुनूँ मज़हब का,

कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक।


उनकी आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते,

नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक।


देख लेना कभी मन्ज़र वो घने जंगल का,

जब सुलग उठ्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक।


रोज़ नफ़रत की हवाओं में सुलग उठती है,

एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक।


इन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो,

जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक।


पुरसुकून आपका चेहरा, ये चमकती आँखें,

आप भी शहर में, लगता है , नये हैं अब तक।


ख़ुश्क़ आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई,

यूँ तो हमने भी कई शे’र कहे हैं अब तक।


दूर पानी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल,

और ‘द्विज’! आप तो दो कोस चले हैं अब तक।

Thursday 18 December 2008

ग़ज़ल/18/12/2008

Posted by Prakash Badal

न वापसी है जहाँ से वहाँ हैं सब के सब।

ज़मीं पे रह के ज़मीं पर कहाँ हैं सब के सब।



कोई भी अब तो किसी की मुख़ाल्फ़त में नहीं,

अब एक-दूसरे के राज़दाँ हैं सब के सब।



क़दम-कदम पे अँधेरे सवाल करते हैं,

ये कैसे नूर का तर्ज़े-बयाँ हैं सब के सब।



वो बोलते हैं मगर बात रख नहीं पाते,

ज़बान रखते हैं पर बेज़बाँ हैं सब के सब।



सुई के गिरने की आहट से गूँज उठते हैं,

गिरफ़्त-ए-खौफ़ में ख़ाली मकाँ हैं सब के सब।


झुकाए सर जो खड़े हैं ख़िलाफ़ ज़ुल्मों के,

‘द्विज’,ऐसा लगता है वो बेज़बाँ हैं सब के सब।

Monday 15 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

इसी तरह से ये काँटा निकाल देते हैं

हम अपने दर्द को ग़ज़लों में ढाल देते हैं


हमारी नींदों में अक्सर जो डालती हैं ख़लल,

वो ऐसी बातों को दिल से निकाल देते हैं


हमारे कल की ख़ुदा जाने शक़्ल क्या होगी,

हर एक बात को हम कल पे टाल देते हैं


कहीं दिखे ही नहीं गाँवों में वो पेड़ हमे,

बुज़ुर्ग साये की जिनके मिसाल देते हैं


कमाल ये है वो गोहरशनास हैं ही नहीं,

जो इक नज़र में समंदर खंगाल देते है


वो सारे हादसे हिम्मत बढ़ा गए ‘द्विज’ की,

कि जिनके साये ही दम—ख़म पिघाल देते हैं

Sunday 14 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

अब के भी आकर वो कोई हादसा दे जाएगा।

और उसके पास क्या है जो नया दे जाएगा।


फिर से ख़जर थाम लेंगी हँसती—गाती बस्तियाँ,

जब नए दंगों का फिर वो मुद्दआ दे जाएगा।


‘एकलव्यों’ को रखेगा वो हमेशा ताक पर,

‘पाँडवों’ या ‘कौरवों’ को दाख़िला दे जाएगा।


क़त्ल कर के ख़ुद तो वो छुप जाएगा जाकर कहीं,

और सारे बेगुनाहों का पता दे जाएगा।


ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी के साये न होंगे नसीब,

ऐसी मंज़िल का हमें वो रास्ता दे जाएगा।

Friday 12 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

मोम—परों से उड़ना और।

इस दुनिया में रहना और।


आँख के आगे फिरना और।

पर तस्वीर में ढलना और।


घर से सुबह निकलना और।

शाम को वापस आना और।


कुछ नज़रों में उठना और।

अपनी नज़र में गिरना और।


क़तरा—क़तरा भरना और।

क़तरा—क़तरा ढलना और।


और है सपनों में जीना,

सपनों का मर जाना और।


घर से होना दूर जुदा,

लेकिन ख़ुद से बिछड़ना और।


जीना और है लम्हों में,

हाँ, साँसों का चलना और।


रोज़ बसाना घर को अलग,

घर का रोज़ उजड़ना और।


ग़ज़लें कहना बात अलग,

पर शे‘रों—सा बनना और।


रोज़ ही खाना ज़ख्म जुदा,

पर ज़ख़्मों का खुलना और।


पेड़ उखड़ना बात अलग,

‘द्विज’! पेड़ों का कटना और।

Wednesday 10 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

फ़स्ल सारी आप बेशक अपने घर ढुलवाइए।

चंद दाने मेरे हिस्से के मुझे दे जाइए।


तैर कर ख़ुद पार कर लेंगे यहाँ हम हर नदी,

आप अपनी कश्तियों को दूर ही ले जाइए।


रतजगे मुश्किल हुए हैं अब इन आँखों के लिए,

ख़त्म कब होगी कहानी ये हमें बतलाइए।


कब तलक चल पाएगी ये आपकी जादूगरी,

पट्टियां आँखों पे जो हैं अब उन्हें खुलवाइए।


ये अँधेरा बंद कमरा, आप ही की देन है,

आप इसमें क़ैद हो कर चीखिए चिल्लाइए।


सच बयाँ करने की हिम्मत है अगर बाक़ी बची,

आँख से देखा वहाँ जो सब यहाँ लिखवाइए।


फिर न जाने बादशाहत का बने क्या आपकी,

नफ़रतों को दूर ले जाकर अगर दफनाइए।

Tuesday 9 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

नींव जो भरते रहे हैं आपके आवास की

ज़िन्दगी उनकी कथा है आज भी बनवास की


जिन परिन्दों की उड़ाने कुन्द कर डाली गईं,

जी रहे हैं टीस लेकर आज भी निर्वास की


तोड़कर मासूम सपने आने वाली पौध के ,

नींव रक्खेंगे भला वो कौन से इतिहास की


वह उगी, काटी गई, रौंदी गई, फिर भी उगी,

देवदारों की नहीं औकात है यह घास की


वह तो उनके शोर में ही डूब कर घुटता रहा,

क़हक़हों ने कब सुनी दारुण कथा संत्रास की


तब यक़ीनन एक बेहतर आज मिल पाता हमें,

पोल खुल जाती कभी जो झूठ के इतिहास की


आपके ये आश्वासन पूरे होंगे जब कभी,

तब तलक तो सूख जाएगी नदी विश्वास की


अनगिनत मायूसियों, ख़ामोशियों के दौर में,

देखना ‘द्विज’, छेड़ कर कोई ग़ज़ल उल्लास की

Monday 8 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

परों को काट के क्या आसमान दीजिएगा।
ज़मीन दीजिएगा या उड़ान दीजिएगा।

हमारी बात को भी अपने कान दीजिएगा,
हमारे हक़ में भी कोई बयान दीजिएगा।

ज़बान, ज़ात या मज़हब यहाँ न टकराएँ,
हमें हुज़ूर, वो हिन्दोस्तान दीजिएगा।

रही हैं धूप से अब तक यहाँ जो नावाक़िफ़,
अब ऐसी बस्तियों पे भी तो ध्यान दीजिएगा।

है ज़लज़लों के फ़सानों का बस यही वारिस,
सुख़न को आप नई —सी ज़बान दीजिएगा।

कभी के भर चुके हैं सब्र के ये पैमाने,
ज़रा—सा सोच—समझकर ज़बान दीजिएगा।

जो छत हमारे लिए भी यहाँ दिला पाए,
हमें भी ऐसा कोई संविधान दीजिएगा।

नई किताब बड़ी दिलफ़रेब है लकिन,
पुरानी बात को भी क़द्र्दान दीजिएगा।

जुनूँ के नाम पे कट कर अगर है मर जाना,
ये पूजा किसके लिए,क्यों अज़ान दीजिएगा।

अजीब शह्र है शहर—ए—वजूद भी यारो,
क़दम—क़दम पे जहाँ इम्तहान दीजिएगा।

क़लम की नोंक पे हों तितलियाँ ख़्यालों की,
क़लम के फूलों को वो बाग़बान दीजिएगा।

जो हुस्नो—इश्क़ की वादी से जा सके आगे,
ख़याल—ए— शायरी को वो उठान दीजिएगा।

ये शायरी तो नुमाइश नहीं है ज़ख़्मों की,
फिर ऐसी चीज़ को कैसे दुकान दीजिएगा।

जो बचना चाहते हो टूट कर बिखरने से,
‘द्विज’, अपने पाँवों को कुछ तो थकान दीजिएगा।

Friday 5 December 2008

Posted by Prakash Badal

बाँध कर दामन से अपने झुग्गियाँ लाई ग़ज़ल।

इसलिए शायद न अबके आप को भाई ग़ज़ल।


आपके भाषण तो सुन्दर उपवनों के स्वप्न हैं,

ज़िन्दगी फिर भी हमारी क्यों है मुर्झाई ग़ज़ल।


माँगते हैं जो ग़ज़ल सीधी लकीरों की तरह,

काश वो भी पूछते, है किसने उलझाई ग़ज़ल।


इक ग़ज़ब की चीख़ महव—ए—गुफ़्तगू हमसे रही,

हमने सन्नाटों के आगे शौक़ से गाई ग़ज़ल।


आप मानें या न मानें यह अलग इक बात है,

हर तरफ़ यूँ तो है वातावरण पे छाई ग़ज़ल।

Wednesday 3 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

बराबर चल रहे हो और फिर भी घर नहीं आता
तुम्हें यह सोचकर लोगो, कभी क्या डर नहीं आता

अगर भटकाव लेकर राह में रहबर नहीं आता,
किसी भी क़ाफ़िले की पीठ पर ख़ंजर नहीं आता


तुम्हारे ज़ेह्न में गर फ़िक्र मंज़िल की रही होती,
कभी भटकाव का कोई कहीं मंज़र नहीं आता

तुम्हारी आँख गर पहचान में धोखा नहीं खाती,
कोई रहज़न कभी बन कर यहाँ रहबर नहीं आता

लहू की क़ीमतें गर इस क़दर मन्दी नहीं होतीं,
लहू से तर—ब—तर कोई कहीं ख़ंजर नहीं आता।

अगर गलियों में बहते ख़ून का मतलब समझ लेते,
तुम्हारे घर के भीतर आज यह लशकर नहीं आता।

तुम्हारे दिल सुलगने का यक़ीं कैसे हो लोगों को,
अगर सीने में शोला है तो क्यों बाहर नहीं आता।

Tuesday 2 December 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

अँधेरे चंद लोगों का अगर मक़सद नहीं होते।

यहाँ के लोग अपने आप में सरहद नहीं होते


न भूलो, तुमने ये ऊँचाईयाँ भी हमसे छीनी हैं,

हमारा क़द नहीं लेते तो आदमक़द नहीं होते।


फ़रेबों की कहानी है तुम्हारे मापदण्डों में,

वगरना हर जगह बौने कभी अंगद नहीं होते।


तुम्हारी यह इमारत रोक पाएगी हमें कब तक,

वहाँ भी तो बसेरे हैं जहाँ गुम्बद नहीं होते।


चले हैं घर से तो फिर धूप से भी जूझना होगा,

सफ़र में हर जगह सुन्दर— घने बरगद नही होते।

Sunday 23 November 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी|

मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी|


बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी,

कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी|


बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !

बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी|


ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं,

अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी|


नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे,

तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी|


क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की,

मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी|


यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में,

मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी|


भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी"

अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी|


हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको,

सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी|


मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह,

उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी|


तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं,

कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी|


अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है,

कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी|


बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,

पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी|


बुला रही है तुझे धूप ‘द्विज’ पहाड़ों की,

तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी|


Saturday 22 November 2008

ग़ज़ल/22/11/2008

Posted by Prakash Badal


ख़ुद तो जी हमेशा ही तिश्नगी पहाड़ों ने
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने

आदमी को बख़्शी है ज़िन्दगी पहाड़ों ने।
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने।

हर क़दम निभाई है दोस्ती पहाड़ों ने।
हर क़दम पे पाई है बेरुख़ी पहाड़ों ने।

मौसमों से टकरा कर हर क़दम पे दी,
सबके जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने

देख हौसला इनका और शक्ति सहने की !
टूट कर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने।

नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिए सारे,
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने।

रोक रास्ता उनका हाल जब कभी पूछा,
बादलों को दे दी है नग़्मगी पहाड़ों ने।

लुट-लुटा के हँसने का योगियों के दर्शन सा,
हर पयाम भेजा है दायिमी पहाड़ों ने।

सबको देते आए हैं नेमतें अज़ल से,
ये ‘द्विज’ को भी सिखाई है शायरी पहाड़ों ने।


Thursday 20 November 2008

ग़ज़ल/21/11/2008

Posted by Prakash Badal

औज़ार बाँट कर ये सभी तोड़—फोड़ के
रक्खोगे किस तरह भला दुनिया को जोड़ के

ख़ूँ से हथेलियों को ही करना है तर—ब—तर
पानी तो आएगा नहीं पत्थर निचोड़ के

बेशक़ इन आँसुओं को तू सीने में क़ैद रख
नदियाँ निकल ही आएँगी पर्वत को फोड़ के

तूफ़ान साहिलों पे बहुत ही शदीद हैं
ले जाऊँ अब कहाँ मैं सफ़ीने को मोड़ के

शामिल ही नहीं इसमें हुनरमंद लोग अब
इतने कड़े नियम हैं ज़माने में होड़ के

रहते हैं लाजवाब अब ऐसे सवाल ‘द्विज’!
पूछे तेरा ज़मीर जो तुझको झंझोड़ के

Monday 20 October 2008

Posted by Prakash Badal

द्विज की ग़ज़लें

ग़ज़ल

चुप्पियाँ जिस दिन ख़बर हो जायेंगी।
हस्तियां दर- ब- दर हो जाएंगी।

आज हैं अमृत मगर कल देखना,
ये दवाएं ही ज़हर हो जाएंगी।

सीख लेंगी जब नई कुछ थिरकनें,
बस्तियां सारी नगर हो जाएंगी।

सभ्य जन हैं, आस्थाएं, क्या ख़बर,
अब इधर हैं कब किधर हो जाएंगी।

अब तटों से भी हटा लो कश्तियाँ,
वरना तूफां की नज़र हो जाएंगी।

गो निज़ामे अम्न है पार देखना,
अम्न की बातें ग़दर हो जाएंगी।

गर इरादों में नहीं पुख्ता यकीं,
सब दुआएं बेअसर हो जाएंगी।

मंजिलों का फ़िक्र है गर आपको,
मंजिलें ख़ुद हमसफर जो जाएंगी।

ज़िन्दगी मुश्किल सफर है धूप का,
हिम्मतें आख़िर शजर हो जाएंगी।

'द्विज' तेरी ग़ज़ल अगर है बे- बहार,
प्रेम से लिख बा-बहर हो जायेगी।


ग़ज़ल

जो पलकर आस्तीनों में हमारी हमीं को डसते हैं।
उन्हीं की जी हजूरी है, उन्हीं को नमस्ते है।

ये फसलें पक भी जाएंगी तो देंगी क्या भला जग को,
बिना मौसाम ही जिन पर रात दिन ओले बरसते हैं।

कई सदियों से जिन कांटो ने उनके पंख भेदे हैं,
परिन्दे हैं बहुत मासूम उन काँटों में फंसते हैं।

कहीं हैं खून के जोहड़ कहीं अम्बार लाशों के,
समझ में ये नहीं आता, ये किस मंजिल के रस्ते हैं।

अभागे लोग हैं कितने, इसी संपन्न बस्ती में,
अभावों के जिन्हें हर पल भयानक सांप डसते हैं।

तुम्हारे ख्वाब की जन्नत में मन्दिर और मस्जिद है।
हमारे ख्वाब में 'द्विज' सिर्फ़ रोटी-दाल बसते हैं।



blogarama - the blog directory चिट्ठाजगतwww.blogvani.com