द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Sunday 22 February 2009

ख़ौफ़ आँखों में.........

Posted by Prakash Badal

ज़ेह्न में और कोई डर नहीं रहने देता।

शोर अन्दर का हमें घर नहीं रहने देता।


कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वरना,

पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता।


आस्माँ भी वो दिखाता है परिन्दों को नए,

हाँ, मगर उनपे कोई ‘पर’ नहीं रहने देता।


ख़ुश्क़ आँखों में उमड़ आता है बादल बन कर,

दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता।


एक पोरस भी तो रहता है हमारे अन्दर,

जो सिकन्दर को सिकन्दर नहीं रहने देता।


उनमें इक रेत के दरिया–सा ठहर जाता है,

ख़ौफ़ आँखों में समन्दर नहीं रहने देता।


हादिसों का ही धुँधलका–सा ‘द्विज’ आँखों में मेरी,

ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता।

Tuesday 10 February 2009

अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी|
शोले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी|

मेरे होने का सबब मुझको बताकर यारो,
मेरे सीने में धड़कती रही मिट्टी मेरी|

लोकनृत्यों के कई ताल सुहाने बनकर,
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी|

कुछ तो बाकी था मेरी मिट्टी से रिश्ता मेरा'
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी|

दूर परदेस के सहरा में भी शबनम की तरह,
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी|

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने,
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी|

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उसने,
ज़ेह्न में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी|

कोशिशें जितनी बचाने की उसे कीं मैंने,
और उतनी ही दरकती रही मिट्टी मेरी|

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