द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Wednesday 21 January 2009

लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “लोग जहाँ अपनी ग़ज़ल को मुकम्मल करने के लिए काफिए तालाश करते रहते हैं, वहीं द्विजेंद्र “द्विज” की ग़ज़लों को देखकर ऐसा लगता है मानो काफिए आग्रह कर रहे हों कि “द्विज” भाई हमें भी प्रयोग कर लें”, इससे पहले ‘द्विज’ की एक ग़ज़ल पोस्ट की थी तो मैने सोचा था कि पिछली ग़ज़ल में 11 शेर बहुत ज़्यादा हैं लेकिन हैरानी तब हुई जब उसी बहर में 11 शेरों की एक और ग़ज़ल ‘द्विज’ भाई ने भेज दी और उसका भी एक से एक शेर लाजवाब। वरिष्ट साहित्यकार श्री महावीर शर्मा ने तो अपने विचारों में “द्विज” जी की इस बहर को अपनी सबसे पसंदीदा बहर कहते हुए द्विज भाई की सराहना की थी अब द्विज भाई की एक अन्य ग़ज़ल आपकी नज़्र है। (प्रकाश बादल)


लौट कर आए हो अपनी मान्यताओं के ख़िलाफ़

थे चले देने गवाही कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़


जो हमेशा हैं दुआओं प्रार्थनाओं के ख़िलाफ़

आ रही है बद्दुआ फिर उन खुदाओं के ख़िलाफ़


मौसमों ने पर कुतरने का किया है इन्तज़ाम

कब परिंदे उड़ सके कुछ भावनाओं के ख़िलाफ़


आदमी व्यवहार में आदिम ही दिखता है अभी

यूँ तो है दुनिया सभी आदिम-प्रथाओं के ख़िलाफ़


फूल, ख़ुश्बू, घर, इबादत, मुस्कुराहट, तितलियाँ

ये सभी सपने रहे कुछ कल्पनाओं के ख़िलाफ़


रात-दिन जिनकी ज़बाँ पर रोटियाँ बैठी रहीं

बोल ही पाए कहाँ वो यातनाओं के ख़िलाफ़


सींखचे ये, ज़ह्र ये, संत्रास, अंगारे, सलीब

कब नहीं रहते हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़


भूख, बेकारी, ग़रीबी, खौफ़, मज़हब का जुनूँ

माँगिए दिल से दुआ इन बद्दुआओं के ख़िलाफ़


कारख़ानों ,होटलों सड़कों घरों में था ग़ुलाम

हो गया बचपन गवाही योजनाओं के ख़िलाफ़


तजरिबे कर के ही लाती है दलीलें भी तमाम

हर नई पीढ़ी पुरानी मान्यताओं के ख़िलाफ़


अब ग़ज़ल, कविता कहानी गीत क्या देंगे हमें

लिख रही हैं 'द्विज'! विधाएँ ही विधाओं के ख़िलाफ़

Sunday 4 January 2009

ग़जल

Posted by Prakash Badal

जो लड़ें जीवन की सब संभावनाओं के ख़िलाफ़।

हम हमेशा ही रहे उन भूमिकाओं के ख़िलाफ़।


जो ख़ताएँ कीं नहीं , उन पर सज़ाओं के ख़िलाफ़,

किस अदालत में चले जाते ख़ुदाओं के ख़िलाफ़।


जिनकी हमने बन्दगी की , देवता माना जिन्हें,

वो रहे अक्सर हमारी आस्थाओं के ख़िलाफ़।


ज़ख़्म तू अपने दिखाएगा भला किसको यहाँ,

यह सदी पत्थर—सी है संवेदनाओं के ख़िलाफ़।


सामने हालात की लाएँ जो काली सूरतें,

हैं कई अख़बार भी उन सूचनाओं के ख़िलाफ़।


ठीक भी होता नहीं मर भी नहीं पाता मरीज़,

कीजिए कुछ तो दवा ऐसी दवाओं के ख़िलाफ़।


आदमी से आदमी, दीपक से दीपक दूर हों,

आज की ग़ज़लें हैं ऐसी वर्जनाओं के ख़िलाफ़।


जो अमावस को उकेरें चाँद की तस्वीर में,

थामते हैं हम क़लम उन तूलिकाओं के ख़िलाफ़।


रक्तरंजित सुर्ख़ियाँ या मातमी ख़ामोशियाँ,

सब गवाही दे रही हैं कुछ ख़ुदाओं के ख़िलाफ़।


आख़िरी पत्ते ने बेशक चूम ली आख़िर ज़मीन,

पर लड़ा वो शान से पागल हवाओं के ख़िलाफ़।


‘एक दिन तो मैं उड़ा ले जाऊँगी आख़िर तुम्हें,

ख़ुद हवा पैग़ाम थी काली घटाओं के ख़िलाफ़।

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