जितना दिखता हूँ मुझे उससे ज़ियादा न समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता न समझ
जो तक़ल्लुफ़ है उसे हर्फ़े-तमन्ना न समझ
मुस्कुराहट को मुहब्बत का इशारा न समझ
यह तेरी आँख के धोखे के सिवा कुछ भी नहीं
एक बहते हुए दरिया को किनारा न समझ
एक दिन चीर के निकलेंगे वो तेरी आँतें
वो भी इन्साँ हैं उन्हें अपना निवाला न समझ
वह तुझे बाँटने आया है कई टुकड़ों में
मुस्कुराते हुए शैताँ को मसीहा न समझ
जिन किताबों ने अँधेरों के सिवा कुछ न दिया
उन किताबों के उजाले को उजाला न समझ
छोड़ जाएगा तेरा साथ अँधेरे में यही
यह जो साया है तेरा इसको भी अपना न समझ
यह जो बिफरा तो डुबोएगा सफ़ीने कितने
तू इसे आँख से टपका हुआ क़तरा न समझ
है तेरे साथ अगर तेरे इरादों का जुनूँ
क़ाफ़िला है तू अभी ख़ुद को अकेला न समझ
तुझ से ही माँग रहा है वो तो ख़ुद अपना वजूद
ख़ुद भिखारी है उसे कोई ख़लीफ़ा न समझ
बढ़ कुछ आगे तो मिलेंगे तुझे मंज़र भी हसीं
इन पहाड़ों के कुहासे को कुहासा न समझ
साथ मेरे हैं बुज़ुर्गों की दुआएँ इतनी
मैं हूँ महफ़िल तू मुझे आज भी तनहा न समझ
शायरी आज भी उनकी है नई ‘द्विज’ ख़ुद को
ग़ालिब-ओ-मीर या मोमिन से भी ऊँचा न समझ
चांदनी रातें - भारत में रूस की बातें
5 weeks ago