ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी|
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी|
बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी,
कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी|
बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !
बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी|
ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं,
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी|
नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे,
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी|
क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की,
मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी|
यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में,
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी|
भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी"
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी|
हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको,
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी|
मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह,
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी|
तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं,
कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी|
अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है,
कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी|
बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी|
बुला रही है तुझे धूप ‘द्विज’ पहाड़ों की,
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी|