द्विजेन्द्र "द्विज"

द्विजेन्द्र "द्विज" एक सुपरिचित ग़ज़लकार हैं और इसके साथ-साथ उन्हें प्रख्यात साहित्यकार श्री सागर "पालमपुरी" के सुपुत्र होने का सौभाग्य भी प्राप्त है। "द्विज" को ग़ज़ल लिखने की जो समझ हासिल है, उसी समझ के कारण "द्विज" की गज़लें देश और विदेश में सराही जाने लगी है। "द्विज" का एक ग़ज़ल संग्रह संग्रह "जन-गण-मन" भी प्रकाशित हुआ है जिसे साहित्य प्रेमियों ने हाथों-हाथ लिया है। उनके इसी ग़ज़ल संग्रह ने "द्विज" को न केवल चर्चा में लाया बल्कि एक तिलमिलाहट पैदा कर दी। मैं भी उन्ही लोगों में एक हूं जो "द्विज" भाई क़ी गज़लों के मोहपाश में कैद है। "द्विज" भाई की ग़ज़लें आपको कैसी लगी? मुझे प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी!
********************प्रकाश बादल************************

Sunday 23 November 2008

ग़ज़ल

Posted by Prakash Badal

ये कौन छोड़ गया इस पे ख़ामियाँ अपनी|

मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी|


बना के छाप लो तुम उनको सुर्ख़ियाँ अपनी,

कुएँ में डाल दीं हमने तो नेकियाँ अपनी|


बदलते वक़्त की रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर !

बदलते रहते हैं अकसर जो टोपियाँ अपनी|


ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं,

अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी|


नहीं लिहाफ़, ग़िलाफ़ों की कौन बात करे,

तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी|


क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की,

मैं फाड़ देता हूँ अकसर सब अर्ज़ियाँ अपनी|


यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहज़े में,

मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी|


भले दिनों में कभी ये भी काम आएँगी"

अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी|


हमें ही आँखों से सुनना नहीं आता उनको,

सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी|


मेरे लिये मेरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह,

उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी|


तमाम फ़ल्सफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं,

कहीं हैं छाँव कहीं धूप वादियाँ अपनी|


अभी जो धुन्ध में लिपटी दिखाई देती है,

कभी तो धूप नहायेंगी बस्तियाँ अपनी|


बुलन्द हौसलों की इक मिसाल हैं ये भी,

पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी|


बुला रही है तुझे धूप ‘द्विज’ पहाड़ों की,

तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी|


Saturday 22 November 2008

ग़ज़ल/22/11/2008

Posted by Prakash Badal


ख़ुद तो जी हमेशा ही तिश्नगी पहाड़ों ने
सागरों को दी लेकिन हर नदी पहाड़ों ने

आदमी को बख़्शी है ज़िन्दगी पहाड़ों ने।
आदमी से पाई है बेबसी पहाड़ों ने।

हर क़दम निभाई है दोस्ती पहाड़ों ने।
हर क़दम पे पाई है बेरुख़ी पहाड़ों ने।

मौसमों से टकरा कर हर क़दम पे दी,
सबके जीने के इरादों को पुख़्तगी पहाड़ों ने

देख हौसला इनका और शक्ति सहने की !
टूट कर बिखर के भी उफ़ न की पहाड़ों ने।

नीलकंठ शैली में विष स्वयं पिए सारे,
पर हवा को बख़्शी है ताज़गी पहाड़ों ने।

रोक रास्ता उनका हाल जब कभी पूछा,
बादलों को दे दी है नग़्मगी पहाड़ों ने।

लुट-लुटा के हँसने का योगियों के दर्शन सा,
हर पयाम भेजा है दायिमी पहाड़ों ने।

सबको देते आए हैं नेमतें अज़ल से,
ये ‘द्विज’ को भी सिखाई है शायरी पहाड़ों ने।


Thursday 20 November 2008

ग़ज़ल/21/11/2008

Posted by Prakash Badal

औज़ार बाँट कर ये सभी तोड़—फोड़ के
रक्खोगे किस तरह भला दुनिया को जोड़ के

ख़ूँ से हथेलियों को ही करना है तर—ब—तर
पानी तो आएगा नहीं पत्थर निचोड़ के

बेशक़ इन आँसुओं को तू सीने में क़ैद रख
नदियाँ निकल ही आएँगी पर्वत को फोड़ के

तूफ़ान साहिलों पे बहुत ही शदीद हैं
ले जाऊँ अब कहाँ मैं सफ़ीने को मोड़ के

शामिल ही नहीं इसमें हुनरमंद लोग अब
इतने कड़े नियम हैं ज़माने में होड़ के

रहते हैं लाजवाब अब ऐसे सवाल ‘द्विज’!
पूछे तेरा ज़मीर जो तुझको झंझोड़ के

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